संजय की कविताओं में आम आदमी का संघर्षपूर्ण जीवन और पूंजीवाद के शोर में उसकी गुम होती जा रही पहचान को सहेजने की बेचैनी है । ये प्रतिरोध की कविताएँ हैं जो हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों को स्वर देती हैं लेकिन कहीं-कहीं हताश भी नज़र आती हैं । यह हताशा आज के समय का सबसे बड़ा सच है जब संसाधनों का विषम वितरण दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। अपने आस पास के परिवेश को देखने की दृष्टि देती संवेदनशीलता से बुनती ये कविताएँ कहीं--कहीं नौस्टेल्जिक हो उठती हैं लेकिन उसके बहाने ये कुछ बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर भी सोचने को बाध्य करती है: "आज मेरे खून में जितना अन्न है उतना ही ज़हर है/मैं जहाँ रहता हूँ वह मेरी आजीविका का शहर है/मैं क्या उगाता हूँ क्या बनाता हूँ/वह जो खुर्पियाँ बनाता है और कपास उगाता है
जानना चाहता है।"
"इस शहर में न कोई मुझे न ही मेरे
बच्चों को पहचानता है
मेरी कविताओं में मुझे मत ढूढो
कवितायें मैं पुरानी दीवारों पर
मकड़ियों को जाले बनाते देखके लिखता हूँ |" कवि की इन पंक्तियों से बरबस ही रसूल हमजातोव या आ जाते है ...."कि एक तीसरा आदमी भी है जो बिलकुल कविता नहीं करता । शायद यह तीसरा ही असली कवि है ।"
अपने आस पास के परिवेश को देखने के लिए एक नयी दृष्टि देती ये जरूरी कविताएँ ख़ुद को पढे और गुने जाने की मांग करती हैं । पढिये एक युवा स्वर संजय कुमार शांडिल्य को ...
कुछ थोड़े से लोग हमेशा टापुओं पर रहते हैं
तो मैं रोजोशब खुले समुद्र में रहता हूँ
मुझे हरबार लहरें दूर ,बहुत दूर
लाकर पटक देती हैं
इतनी दूर कि मेरे देश का नौ क्षेत्र
मुझे दिखाई नहीं देता
एक बड़े झंझावात में इस दुनिया की छत
उड़ रही होती है
और हिमालय और आल्पस जैसे पहाड़
भसकते हुए अपने मलबे के साथ
मेरी ओर लुढ़कते हैं
कुछ थोड़े से लोग तब पबों में जाम टकराते
हुए मेरी इस बेबसी पर हँसते हैं
मुझे इस मृत्यु की नींद में उनके ठहाके
सुनाई पड़ते हैं
मैं जब एक दूब की तरह सिर उठाता हूँ
अपने ऊपर के आसमान से मेरा सिर लगता है
कुछ थोड़े से लोग अंतरिक्ष से खेलते हैं
और मेरी पृथ्वी रोज़ हिलती है ।
2..हम मृत्यु को प्रेमिकाओं से अधिक जानते हैं
एक जीवन जी जाता है
अंत तो प्रारंभ से ही रहता है
मृत्यु बहती है साथ-साथ
ईश्वर की
चलती रहती हैं गोलियाँ
ईश्वर के दरख्त से
लटकती रहती हैं गर्दनें
ईश्वर के कुएँ में
टूट जाती है रीढ़ की हड्डी
ईश्वर कारें चलाकर
रौंदता है
और ट्रैक्टर के पहिए से
कुचल डालता है
ईश्वर फेंक आता है
हमारी लाशें गंडक की दियर में
हम मृत्यु से नहीं
इस पृथ्वी पर अनंत
काल से ईश्वर से डर रहे हैं
मृत्यु तो साथ चलती हुई
सब्जी खरीद आती है
मृत्यु साईकिल चला कर
घरों में दूध की बोतलें
डाल आती है
मृत्यु कर आती है विदेश यात्राएँ
अंतरिक्ष में जाकर पृथ्वी
पर लौट आती है मृत्यु
सिर पर झुलती है
बिजली के तारों में
हम मृत्यु को प्रेमिकाओं से
अधिक जानते हैं
हमें ईश्वर मारता है
हम उसका पता नहीं जानते
हमने उसकी शक्ल नहीं देखी है
वह सात पर्दो में रहता है
और गोलियाँ बरसाता है ।
3.गुलमोहर से लगातार फूल झड़ते हैं
बिखेर देता है हरियाली छोड़ने के क्षण में
सिकुड़ा हुआ लाल फूल
तुम हँसकर पूछती हो कि तुम्हारा हँसना बुरा तो नहीं है ।
जैसे इस अँधेरे में एक-एक कर
डूबने लगेंगे रात के सितारे
एक बड़े गोते में सूरज एक दूसरे आकाश में निकलेगा
और पृथ्वी पर सुबहें नहीं होंगी ।
हँसने से अच्छा कोई व्यायाम नहीं है यह सामान्य वाक्य कहकर मैं परे देखता हूँ
सचमुच तुम्हारी हँसी के बिना यह दुनिया कितनी बेडौल हो गई है
मुझे एक सामूहिक ठहाके में वह पार्क अकबकाया और बदहवास दिखाई पड़ता है
जिसे शाम को खिलखिलाते हुए बच्चे थिर करते हैं ।
फैसलों का परिणाम जिस पर पड़ता हो उसे
फैसले लेने का हक़ होना चाहिए
तुम लगातार हँसती हो और गुलमोहर से लगातार फूल झड़ते हैं ।
4.परिन्दे उड़ने की सही दिशा जानते हैं
उड़ने की सही दिशा जानते होंगे
हम-आप बिलखते-चिलकते रह जाते हैं
इस धूप में, इस असमय बारिश में
इस बेलगाम रफ़्तार में चित्र-लिखित
इस ध्वंस के बाद की सिसकती मायुसी में
धरती के इस या उस करवट में
समुद्र के फेनिल उद्वेलन में
हर विषाद में ,हर यातना में
इस लहराते हुए समय की चिरंतन चेतना के
संगुफन में
इस प्रलय के घनान्धकार में
जो अनांदोलित हैं हमी हैं
उत्तर से मृत्यु की एक लहर आती है
और दक्षिण जीवन की दिशा है
जिन्हें एक पक्ष चुनना है-सुविधा का श्वेत पक्ष
फिर किसी और पेड़ पर
मिट्टी और रेशों से
नया घोंसला बनाते हैं
उनकी नींद में सपने हरे रहते हैं
इस विलाप के समय की अनथक
अनिद्रा में
हमारा चुना हुआ उजाड़ है
हमें यहीं रहना है
सँवलाए हुए सपनों को
सुबह-शाम जल देते ।
मैं जहाँ पैदा हुआ वह मेरे पिता की आजीविका का शहर था
मेरे बच्चे मेरी आजीविका के शहर में पैदा हुए
गाँव में पैदा हुए मेरे दादाजी,वे वहां बिना आजीविका के
जबतक रहे जीवित रहे
मेरी परदादी तकली पर कपास बाँटती थी गाँव में
मेरे परदादा कपास उगाते थे गाँव में
मेरा गाँव आज तक मुझे मेरे परदादा के
नाम से जनता है
वह लोहार जो कभी खुर्पियाँ बनाता था
वह मेरे पुरखों का पड़ोसी है
आज वह काले घोड़े के नाल की अंगूठियाँ बनाता है
मैं अपने समय के शनि और मंगल से
डरा हुआ उसके पास बैठता हूँ
न वह गाँव मुझमें रहता है
और न मैं उस गाँव में रहता हूँ
आज मेरे खून में जितना अन्न है उतना ही ज़हर है
मैं जहाँ रहता हूँ वह मेरी आजीविका का शहर है
मैं क्या उगाता हूँ क्या बनाता हूँ
वह जो खुर्पियाँ बनाता है और कपास उगाता है
जानना चाहता है
मेरे आस-पास कोई कुछ नहीं बताता
कि वह जो पैसे कमाता है,क्या बनाता है
कपास जैसा हल्का ,खुर्पियों जैसा ठोस
इस शहर में किसकी आजीविका क्या है
कोई नहीं जानता है
इस शहर में न कोई मुझे न ही मेरे
बच्चों को पहचानता है
मेरी कविताओं में मुझे मत ढूंढो
कविताएँ मैं पुरानी दीवारों पर
मकड़ियों को जाले बनाते देखके लिखता हूँ |
लेखक परिचय
संजय कुमार शांडिल्य
सहायक अध्यापक
सैनिक स्कूल गोपालगंज
पत्रालय-हथुआ
सैनिक स्कूल गोपालगंज
पत्रालय-हथुआ
जिला-गोपालगंज
बिहार
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Mob-9431453709