काशी, चिंतन और चुड़ैल : विस्थापन, कम्युनिस्ट विचारधारा, शहर – शहर बंजारे की भटकन, राजनीति और कविता.....

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बोधि प्रकाशन से आयी प्राणेश नागरी के इस कविता संग्रह में इसके थोड़े अलग से शीर्षक के बाद जिस एक तत्व ने सबसे ज़्यादा आकर्षित या यूं कहें प्रभावित किया, वह यह कि कविताएं आपसे सीधा संवाद करती हैं। बिना क्लिष्ट, कठिन बिंबों के जो आजकल कविताओं में ज़बरन ठूँसे जाते हैं और परिणाम यह होता है कि कवितायें आम आदमी की समझ और पहुँच से दूर होकर सिर्फ साहित्यिक गोष्ठियों और पत्रिकाओं की शोभा बनकर रह जाती हैं। बिम्ब मोह या किसी भी तरह के मेटाफर से परे, यह कवितायें चीजों को उनके नाम से पुकारती हैं और पाठकों के दिल  में अपने गहरे प्रभाव के साथ उतरती चली जाती हैं। कोई कृत्रिमता नहीं, शब्दों का कोई आडंबर नहीं, लेकिन एक लय, एक प्रवाह, एक सरस धारा जो अपने साथ हमें भी बहा ले जाती है अनायास और फिर याद आते हैं Wordsworth जिन्होने कहा था: Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings, लेकिन मुझे लगता है उनकी दूसरी बात प्राणेश जी की कविताओं के लिए ज़्यादा चरितार्थ होती है, “ Emotions recollected in tranquility”।
इनकी कविताओं में एक सहज संगीत है, यह मेरी प्रथम अनुभूति थी, इन कविताओं को पढ़ने के बाद और इसकी पुष्टि भी हो गयी जब कवि के बारे में और अधिक जानकारी जुटाने की कोशिश की और यह जाना प्राणेश नागरी जी एक अच्छे संगीतज्ञ भी हैं। एक बानगी देखें:
“अब चलना ही बेहतर है” शीर्षक कविता से :
अब क्या है जो साथ चलेगा!
सपने सारे बिखर  गए हैं,
बिखर गया है माधुर्य स्पर्श का,
बिखर गया काया का आँगन !
अब चलना ही बेहतर है !”
दूसरा एक स्वर जो इन कविताओं में बहुत तीव्रता से उभरता है, वह अस्मिता की खोज।  कहीं न कहीं कवि क्राइसिस औफ़ आइडेंटिटी  की प्रक्रिया  से गुज़र रहा है और जो हर  संवेदनशील हृदय की विडम्बना है और अगर इसके जड़ से विस्थापना हो तो यह उसके पूरे अस्तित्व पर सदैव के लिए प्रश्नचिन्ह की तरह खड़ा हो जाता है। जन्मभूमि, वहाँ  मिले संस्कार, संगी - साथी सभी बड़ी तीव्रता से पीछे की ओर खींचते हैं लेकिन नियति बाध्य करती है कि पैर वास्तविकता के उस कठोर धरातल पर जमे रहें जहां वर्षों से निवास करते हुए भी जड़ें नहीं जमीं,  मन नहीं रमा ।  यह पंक्तियाँ देखें :
“ अब थक गया हूँ बहुत
अब घर जाना चाहता हूँ
कोई मेरा पता बता दे मुझे । "
प्राणेश नागरी जी देश के उस हिस्से से जुड़े हुये हैं, जिसकी विडंबना है कि वह हमारे गणतन्त्र का होकर भी नहीं हैं, जहां की खूबसूरत वादियों पर सुबहोशाम संगीनों के पहरे हैं और जहां मानवता लहूलुहान, अपनी बेचारगी पर आँसू बहा रही हैं। अपनी जन्मभूमि कश्मीर की ऐसी दुर्दशा और वहाँ से निकाल दिये जाने की पीड़ा कवि को मानव मात्र से जोड़ती हैं। कविताओं मे जहां तहां  "मंज़िल" ," चलते जाते" , "घर", "पता" जैसे शब्द कवि की स्वयं की घनीभूत पीड़ा का संकेत है। समीक्षा या समालोचना की शर्तों को परे रखकर, अभी यह कहना मुझे अतिशयोक्ति नहीं लग रहा कि कई बार इन्हे पढ़ते हुए नम हो जाती हैं आँखें :
“मैंने खुद अपना अपहरण किया है,
सच है आतंक चल कर नहीं आता,
अपने भीतर ही कुछ डरावना हो जाता है
और घुट के रहने पर मज़बूर करता है
फिर एक दिन यह यादों का आतंक
अतीत से वर्तमान की परिक्रमा करते करते
हमको अपने आपसे निष्काषित करता है
और हम समझ जाते हैं
बारूद से ज़्यादा रिश्ते आतंकित करते हैं हमें"
यह अस्मिता या आइडेंटिटी की खोज जहां मानवता की पीड़ा से कवि को जोड़ती है, वहीं उसे एक आत्म निर्वासन की अवस्था में भी ला खड़ा करती है दोस्तोवोस्की के अंडरग्राउंड मैन की तरह ही कवि भी बाह्य परिस्थितियों से भागता है। उसकी तलाश जो कभी पूरी नहीं होती उसे कभी हताश ज़रूर कर देती है लेकिन कवि अपनी ही राख़ से खड़े होने का हुनर भी जानता है,  इतना साहस है उसमें और ये साहस  आया है  अपनी जड़ों से निर्वासित होने के बाद हिन्दी पट्टी के उस  हिस्से में वास करने से जहां की उर्वर  जमीन जहां एक ओर उसकी रचनात्मकता को समृद्ध  करती है, वहीं जातिवाद, धर्म  और समाज का विभेद और समाज में व्याप्त असंख्य कुरीतियाँ उसकी कविताओं के लिए रॉ मटीरियल जुटाती हैं, उसे आत्मबोध कराती है, और उसे उसकी self alienation की अवस्था से उभारने में मददगार ही साबित होती है, और शायद ऐसी ही प्रक्रिया से निर्माण होता है बुद्ध का । कवि की पंक्तियाँ देखें 
“ वह जाग्रत अवस्था में था
स्वपन जैसा
वह जड़ में था चेतनता जैसा
मैंने पूछा मन को क्या समझाऊँ सरगोशी से उसने कहा
जीवन उत्सव है
और मृत्यु
अस्तित्व के उत्सव की पराकाष्ठा
मैंने कहा ले चलो मुझे
चलो एक बार फिर
बुद्ध का निर्माण करें । "
एक और बात जो अगर मैंने इन कविताओं के संदर्भ में अगर नहीं कहीं तो मेरी बात अधूरी ही रह जाएगी कि एक रूमानियत मौजूद हैं इन कविताओं में प्रेम के इतने मीठे स्पर्श यहाँ मौजूद है कि मन भीग आता है।   आडंबररहित,  सीधे –साढ़े हृदयस्पर्शी शब्द लेकिन इतना माधुर्य, इतना समर्पण है कि प्रेम के क्षण जीवंत से हो उठते हैं और सजीव हो उठता है कोई अनदेखा जो शायद हर एक कविता में मौजूद है, कवि की प्रेरणा बन कर :
“ वह अब कुछ भी नहीं कहती ,
फिर भी उसकी साँसों की छूअन
क्यों बहलाती है मुझे
क्यों वह गीतों में मिलने आती है ....
क्या हुआ था उस दिन
सच बता दो
हर दिन मिलती थी तुम
और बस चली जाती थी
उस दिन क्या हुआ था
मिली और आजतक गयी ही नहीं ....”
कोई अनजान जो आया तो कवि के जीवन में लेकिन कभी जा नहीं सका और उसका माधुर्य रच –बस गया कवि के शब्दों में। एक ओर एक संवेदनशील हृदय है, जिसमे कविता का संगीत घुला है, प्रेम की  मधुर स्मृतियाँ है, वहीं दूसरी ओर है बक़ौल कवि “ विस्थापन ,कम्युनिस्ट विचारधारा ,शहर –शहर बंजारे की भटकन ,राजनीति और क्या –क्या .....” पाब्लो नेरुदा जैसा चरित्र लेकिन यहीं कहीं कविता भी रहती है, जीवन के सभी संघर्षों के साथ कदमताल करती हुई ।
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