श्रीकान्त मिश्र की कविताओं में प्रकृति है, प्रेम है और है एक बांध लेने वाली गीतात्मकता जो आजकल लिखी जाने वाली कविताओं में दुर्लभ हो रही । यही कारण है कि यह कविताएं स्मृतियों में उतर आती हैं। बिम्ब हमारे आस पास से उठाए गए हैं और अपने अभिनव प्रयोग से कविता को और प्रभावी बना डालते हैं । सोंधी मिट्टी की महक से भरी इन कविताओं में सादगी भी है और भारतीय परिवेश के संस्कार भी लेकिन सबसे ज्यादा आकृष्ट करती हैं इनकी अदम्य जिजीविषा जो हर परिस्थिति में भी आगे बढ़ते जाने का संदेश देती हैं भले ही इसकी कीमत हो अकेले हो जाना इस जीवन पथ पर..... बावरा मन ‘पुरू’ की तरह भटकता है युगों से जानने को यह उत्तर कि ‘कौन हूँ मैं’…बावरा मन खोजता है नफरत के साये में बचे हुए दीन और इस्लाम को ... और चाहता है एक छाता, एक आधार जीवन की धूप में और कहना नहीं होगा कि वह छाता बनती है लेखनी..... पढ़ें श्रीकांत मिश्र कान्त की कुछ कविताएं ...
(1)
चिड़िया ने आवाज दी
तन का पांखी उड़ चला
तिनका तिनका
घोंसला
नदी तट तरू तीर से
मुक्त सरिता क्षीर से
कोई तारा कहीं टूटा
कीच माया मोह छूटा
कच्ची मिट्टी का घड़ा है
क्यों करे रे ढकोसला
तिनका तिनका
घोंसला
जगती बस्ती ठांव मेले
लोक जीवन खाये खेले
राजा हो या रंक कोई
घाट पर सब लाज खोई
जीव जीवन राग फिर भी
वावरे का चोंचला
तिनका तिनका
घोसला
दुनियां का सब रंग मेला
जीव जीवन बस अकेला
पुतलियों का नाम धर
डोर जग की थाम कर
है नचाता कौन किसको
कौन करता फैसला
तिनका तिनका
घोंसला
(2)
जीव जीवन पथ अकेला
आदि से जग राह में
क्यों फिरे उद्विग्न अंतस
वावरे ..! किस चाह
नगर में मेले मिले तो
भीड़ भी पुरशोर है
डगर पथरीली कठिन भी
मनुज मन कमजोर है
बह गया बहुधा लहर से
तुमुल करतल वाह में
वावरे ..! किस चाह में
कालिमा कुत्सित तमस की
हाय मानव छल गयी
मोह माया रज्जु बन्दी
सकल उर्जा जल गयी
डोर अब अव्यक्त खींचे
ढोर बांधे रज्जु से
छूटते सब संग साथी
दिव्य आभा पुंज से
अहा अब अभिसिक्त यौवन
अलौकिक किस राह में
वावरे..! किस चाह में
(3)
पुरू
घना है कुहासा
भोर है कि साँझ
डूब गया है
सब कुछ इस तरह
तमस के जाले से
छूटने को मारे हैं
जितने हाथ पाँव
और फंस गया हूँ
बुरी तरह…
वक्त का मकड़ा
घूरता है हर पल
अपना दंश मुझमें
धंसाने से पहले
याद है मुझे
'पुरू' हूँ
किन्तु 'पौरूष' खो गया है
भटक रहा हूँ युगों से
तलाश में …
उस शमी वृक्ष की
टांगा था मैनें
जिस पर कभी गाँडीव
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
उबारो …
उबारो तो मुझे
ओ ! मेरी ‘सोयी हुयी चेतना’
इस अन्धकार से
चीखता रहूँगा मैं
निस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन ‘तुम’
जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर
(4)
सूखा घाट
सूखा घाट
और तालाब
पत्ते पीपल के
सूख चुके हैं सारे
’बरमबाबा’ की डालें
हिलती हैं जब हवा से,
सुनायी देती है मुझे
रुनझुन ....
तुम्हारी नयी पायल की आवाज
अब भी ....
खड़कते हुये पत्तों में
कैथे का पेड़
अब हो गया है
बहुत बड़ा,
सींचा था जिसे अक्सर
कलश की बची बूंदों से
तुमने .....
हर जेठ की तपती दोपहर को
’शिव जी महाराज’ ..
बच्चों से कभी
होते नहीं नाराज
यही तो कहते थे
हर बार ….
सामने की पगडंडी
खो जाती है अब भी
इक्का दुक्का पलाश,
और 'ललटेना'’ की झाड़ियों में
आधुनिकता के प्रतीक
'लिप्टस' के जंगलों में
देखता हूँ अदृश्य पटल पर
तुम्हारी ...
पलाश के दोनों में
करौंदे के प्रसाद वाली
दोपहर की दावत को
बरमबाबा का ...
लबालब भरा तालाब
चहचहाती चिडियाँ
हरा भरा जंगल
अंकुरित आम की गुठलियाँ
और उन्हें यहाँ वहां गाड़ते
एक साथ हमारे नन्हे हाथ
अपने नाम को
अक्षुण करने की चाह में
बड़े हो चुके हैं अब आम
फल आते हैं इन पर
हर साल…..
बँटवारे मारकाट
और वलवे के
ढूंढ़ रहा हूँ
वर्षों बाद आज फिर
अस्ताचल से उठती
गोधूलि के परिदृश्य में
अपने विलोपित खेत खलिहान
और उसमें से झांकता
स्नेहिल आँखों से लबालब
ग्रामदेवी सा दमकता
तुम्हारा चेहरा ...
जो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
(5)
ओ पिता
ओ पिता
ओ पिता
लगा है एक युग मुझे
पहचानने में तुम्हें
माँ होती है धरती
खेत पौषित तत्व से
उगती है जो फसल
वही तो मैं हूँ .
फसल का नाम क्या
पहचान क्या
गेहूँ अथवा जौ
यही तो है वह बीज
हे पिता
में जो भी हूँ
वह है तुम
गेहूँ अथवा जौ
बोया गया किस खेत में
कोई अन्तर नहीं पडता
कयोंकि खेत में जो भी पडेग़ा
खेत उसे ही पोषित करेगा
फिर कौन हूँ मैं
मैं हूँ वह बीज
जो तुम हो .
हे पिता !
दर्द का गुबार
पीड़ा दी है
बहुत तुम्हें
स्वयं को
त्यागी वीतरागी और महान
सिद्ध करने के दर्प में
क्षमा याची
ढूंढता हूं
तुम्हारी गोद
सब कुछ भूल
बचपन की तरह
आज फिर
चिपट कर लिपट कर
रोना चाहता हूं
और पुकारता हूं
हे पिता !
लगा है एक युग मुझे
तुम्हें पहचानने में
बिलबिला उठता हूं
सीने से ज्वार उठकर
फूट पड़ता है आंखों से
और तभी
केवड़े की गंध से
भर जाता है मेरा कमरा
खिड़की से प्रवेश करता है
हवा का एक झोंका
मेरे आंसू सूखने लगते हैं
(6)
कविता की दुकान
मोहल्ले के नुक्कड़ पर
खुली है नयी कविता की एक दुकान
साहित्यिक डाक्टर्स की खोज
आधुनिक मशीनों और
नयी टेक्नोलोजी से संयुक्त
आदि से अनादि काव्य की
समकालीन संभावनाओं से युक्त
बस भाषा भाव और शैली का
इनपुट फार्म भरना पड़ता है
कविता का डाक्टर
बस एक बटन दबाता है
और सिंथेटिक काव्य
हार्ड एवं साफ्ट फार्म
दोनों में निकल आता है
अनाम डाक्टरों की रिसर्च
थोड़ी मंहगी है ये मशीन
आखिर आधुनिक साहित्यकारों ने
वर्षों में ईजाद की है ये नवीन
अवहेलना उपालम्भ कटुक्तियों
सर्व व्यंग्यवाणों से रक्षित
कापीराईट पैटेण्ट रायल्टी
स्वतः ही परिलक्षित
यों तो ये प्रोडक्ट
थोड़े मंहगे जरूर हैं
क्योंकि डलते इसमें
शोधकर्ताओं के गुरूर हैं
लेकिन अब आम आदमी की
कच्ची पगडंडी पर पीड़ा भोगती
चीप संवेदनशीलता की उस
आउटडेटेड शैली की
फैशनहीन पुरानी कविता को
अब कौन पूंछता है
टिप्पणीकार भी बहुधा
अच्छी है पैरोडी कहकर
सड़क से भागने का रास्ता ढूंढ़ता है
(7)
कौन हूं मैं …
कौन हूं मैं …
ले उर में अथाह जलराशि
नील नभ में तैरता ..
हवा के झोंकों पर सवार
ऊपर और ऊपर …
अपने प्रस्तार से
सूरज को ढंक लेने का दंभ लिये
हर पल कोई नया रूप लिये
कोई भटकता बाद्ल ….
किन्तु वादियों में बहुधा उलझ जाता हूं
नवयौवना की वेणी जैसा गुंथ जाता हूं
वर्फीली पर्वत चोटियों से नीचा हो जाता हूं
और मेर दंभ चूर हो जाता है ..
फ़िर कौन हूं मैं ….
कौन हूं मैं …..
अछूती कन्या के शील सी
दूर तक पसरी हुयी रेत पर
हवा की ख़ारिशों से लिखा नाम
चमकता हूं दूर तक, सबसे अलग
बेचैनी से ……
और प्रस्तार की प्रतीक्षा में
किन्तु फिर दूब उग आती है
या फिर अंधड़ तूफ़ान के आते ही
ढंक जाता है …
समाप्त हो जाता है मेरा अस्तित्व
फिर कौन हूं मैं ….
कौन हूं मैं …
काल की अनवरत धारा पर
बनी हुयी एक आकृति …
बह्ती जा रही है
अपनी क्षणभंगुरता से बेख़बर …
यौवन की देहरी पर खड़ी
आसपास की सभी आकृतियों को
आकृष्ट करने में निरन्तर ….
एक निश्चित दूरी पर,
बहती हुयी धारा में जो भंवर है
वहां पहुंचते ही आकृति विलीन हो जाती है
कहीं कोई नाम नहीं …. कोई निशान नहीं
गीली रेत पर पगचिन्ह…
दोपहर होते ही मिट जाते हैं
फिर कौन हूं मैं ….
शायद एक शाश्वत विचार ..
जो दिया है मैने, युग को ..
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
(8)
तुम्हारी पदचाप
समय की दीवार पर
पल की खिड़की से
झांकता तुम्हारा चेहरा
पुरवा के झोंको संग
होठों की कोर पर
‘स्मित का बादल’ ले आता है
घाटी में फैले
समतल खेतो की
धानी हरियाली ....
'स्नेहिल चादर'
पहाडों पर सीढ़ीदार
खेतों की हलचल,
हरियल की फुर्र के साथ
बहुधा उड़ जाती है
दशकों बाद 'कालेज कंपाउण्ड' में
'वय की चादर' ओढे....
चश्में के पीछे से झांकती
तुम्हारी आँखें देखती होंगी
बदले हुए कैम्पस में
अदृश्य पटल पर ...
‘स्मृतियों के चलचित्र’
मचलता होगा मन
चीड़ और देवदार के तनों पर ...
उंगलियों की पोरों पर ...
पाने को पुनः 'वही स्पर्श'
और मैं जानता हूँ
पहाड़ की चोटी पर
ऊपर चढ़ती पगडण्डी पर
अनगिन पग्चिन्हों में
मौजूद हैं तुम्हारे पदचिन्ह
हाँ युग के साथ बदला है
... बहुत कुछ
किंतु वो बर्फीली चोटियाँ,
वो शाखें ...
और अलमस्त छांव
खुशी से झूम रही हैं
बरसते हुए बादलों के संग
क्योंकि ....
पहचानती हैं वो आज भी
चोटी के मन्दिर में
प्रतीक्षित नयनों में बसा संताप
और अपने आंगन में ...
आज तुम्हारी पदचाप
(9)
कहां है दीन और इस्लाम....हे राम...!
बाशिद चाचा ......
कहां हो तुम,
तुम्हारे ......
पंडी जी का बेटा
तुम्हारा दुलारा मुन्ना
हास्पिटल के वार्ड से
अपनी विस्फोट से
चीथड़े हुयी टांग
अंत:स्रावित अंतड़ियों की पीड़ा ले
डाक्टरों की हड़्ताल
और दवा के अभाव में तड़पती,
वीभत्स हो चुके चेहरे वाली
मुनियां की चीखों से .....
परिजनों के हाहाकार के बीच
तंद्रावेशी देखता है बार बार
तुम और तुम्हारे पन्डीजी को
ज़न्नत या स्वर्ग जो भी हो
में साथ साथ ....
शायद अब भी मनाते होंगे
दोनों होली और ईद
खाते होंगे सेवैयां और मिठाई
पीते होंगे .....
शिव जी का प्रसाद भंग
होली की उमंग और ठहाकों के संग
टूटती ... उखड़ती जीवन की
नि:शेष श्वासों के बीच
छोटे से मुझको लेने गोद में
आपस में जूझते
शरीफ़ुल और इकबाल भैया
हिज़ाब के पीछे से झांकती
भाभीजान का टुकटुक मुझे ताकना
और अचानक मुझे लेकर भागना
इंजेक्शन का दर्द
चच्ची के मुन्ने को अब नहीं डराता है
विस्फोट की आवाज के बाद से,
टी वी पर देखा .... वो अकरम,
मेरा प्यारा भतीजा .......
मारा गया किसी एन्काउंटर में
..... कहां खो गया सब
वो पूजा के लिये लहड़ू में
आरतो को ले जाते हुये
हाज़ी सा दमकता तुम्हारा चेहरा
मंदिर पर भज़नों के बीच
ढोलक पर मगन चच्ची
छीन लिये हैं हमसे हमारे बच्चे...
वोट वालों ने .....
और भर दिये हैं उनकी मुठ्ठी में
नफ़रत के बीज
कहां है दीन और इस्लाम
हे राम........!
(10)
तुम्हारा रिश्ता
तुम्हारा रिश्ता
जैसे सूखा कुँआ ….
और उजाड़ पनघट
चिलचिलाती दोपहर में
रिसता है पल पल
शिवलिंग पर रखा घट
बस खाली होता हुआ
पार्वती की प्रतीक्षा में
पतझड़ के मौसम में
अमरबेल सा कोमल
और उलझाये कोई वृक्ष
नागफणी का फूल
और कंटक की फाँस
टिमटिमाते …
दीपक की रोशनी
और धूम धूसरित
कोई अँधेरा कक्ष
लू के थपेडों
से खिलते हैं
बांस के फूल
मन में …
छाने लगती हैं
अनजानी …
आशंकाओं की धूल
और तभी घुमड़ते हैं
अंतस में मेघ
उफनता है …
आवेग का ज्वार
झरने लगती है …
काली घटा फ़िर कोई
नयनों की कोरों से
ला देती है सैलाब
स्मृति की बिजलियाँ
कौंधती हैं बार बार
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ
2 comments
चौथी कविता अच्छी लगी ! अधिकतर में कबीरपंथी वैराग्य है !!
मेरी बेटी, मेरे लिये तो मेराकी का अर्थ है - 'रश्मि' !
सबसे सुन्दर लगा मेरी अँगुलियों के साथ ताल देता मेराकी का नववर्ष सन्देश. जिधर घुमाया, घूमता गया. बिलकुल मन्त्र-मुग्ध बीन की लय पर झूमते नाग के फन की तरह, वही लचक, वही लोच और वही गति.
पहले कवि के रूप में एक समर्थ कलमकार को पढ़ने का अवसर मिला, उनकी हर कविता दत्तचित्त हो पढ़ी.
सब एक से एक. 'बरम बाबा' से लेकर 'तिनका-तिनका घोंसला' तक - हर ओर कवि की दृष्टि, हर ओर कवि की स्नेहिल ऊष्मा - 'बादिश चाचा' को वैसे ही याद करते हैं, जैसे 'पिताजी' को. 'पुरु' से 'पार्वती' तक का आह्वान कर लेने का समृद्ध शब्द-संचय और बोध-भण्डार. 'स्व' का साक्षात्कार और मार्मिक स्वर में 'तुम' को 'पगरव' सुनते ही व्यग्र हो पुकारना. जगत की क्षणभंगुरता और लोक-रंजन की प्रतिबद्धता. यान्त्रिकी के सहारे शब्दों के साथ खेलने को आतुर वर्तमान यान्त्रिक दौर की तथाकथित कविता पर कटाक्ष. सभी रंग हैं कवि की कलम में.
सलाम. कम से कम शब्दों के सहारे कविता का वितान तान लेने में समर्थ रचनाकार को.