वंदना ग्रोवर कहती हैं कि मैं खुद से शुरू होकर खुद पर ही खत्म हो जाती हूँ लेकिन उनकी कविताओं में निहित संवेदना अपनी पूरी शिद्दत से पाठकों तक पहुँचती है, कभी चौंकाती है, कभी बनती है मरहम, कभी एक अनजाने दर्द से भर देती हैं। इनके लेखन की अपनी एक विशिष्ट शैली है जहां बहुत कम शब्दों में एक पूरा अनुभव संसार झाँकता है.... इसे एक स्त्री का अनुभव संसार कहना इन कविताओं को एक विशेष परिधि में बांध देना होगा। स्त्री हृदय तो निस्संदेह यहाँ मौजूद है लेकिन यहाँ कवियत्री की भावनाएं खुद के बहाने से समष्टि की भावना बनती प्रतीत होती है .... ‘विधि’ जैसी कविता के बहाने वंदना ग्रोवर आज के सामाजिक परिदृश्य का चित्र ज्यों का त्यों हमारे सामने रखती है और बिना किसी समाधान को इंगित किए पाठकों के मानस पर मजबूती से दस्तक देती हैं कि अपने आस पास की भयावह स्थिति के बारे में सोचे ...क्योंकि किसी मुद्दे पर अगर हम संवेदनशीलता से सोच भर सकें तो वह एक नयी शुरुआत का संकेत है.... पढ़िये वंदना ग्रोवर की कविताएँ मेराकी से लिखी गईं, मेराकी के लिए....
वंदना ग्रोवर कहती हैं कि मैं खुद से शुरू होकर खुद पर ही खत्म हो जाती हूँ लेकिन उनकी कविताओं में निहित संवेदना अपनी पूरी शिद्दत से पाठकों तक पहुँचती है, कभी चौंकाती है, कभी बनती है मरहम, कभी एक अनजाने दर्द से भर देती हैं। इनके लेखन की अपनी एक विशिष्ट शैली है जहां बहुत कम शब्दों में एक पूरा अनुभव संसार झाँकता है.... इसे एक स्त्री का अनुभव संसार कहना इन कविताओं को एक विशेष परिधि में बांध देना होगा। स्त्री हृदय तो निस्संदेह यहाँ मौजूद है लेकिन यहाँ कवियत्री की भावनाएं खुद के बहाने से समष्टि की भावना बनती प्रतीत होती है .... ‘विधि’ जैसी कविता के बहाने वंदना ग्रोवर आज के सामाजिक परिदृश्य का चित्र ज्यों का त्यों हमारे सामने रखती है और बिना किसी समाधान को इंगित किए पाठकों के मानस पर मजबूती से दस्तक देती हैं कि अपने आस पास की भयावह स्थिति के बारे में सोचे ...क्योंकि किसी मुद्दे पर अगर हम संवेदनशीलता से सोच भर सकें तो वह एक नयी शुरुआत का संकेत है.... पढ़िये वंदना ग्रोवर की कविताएँ मेराकी से लिखी गईं, मेराकी के लिए....
1.
रगों में थे घरों में थे
लहू में थे परों में थे
पेशानी-ए -ज़मीं पे थे
फ़लक़ को छू रहे थे जो
कुछ आज़ाद से ख्याल थे
2.
विधि
एक औरत लें
किसी भी धर्म ,जाति ,उम्र की
पेट के नीचे
उसे बीचों-बीच चीर दें
चाहें तो किसी भी उपलब्ध
तीखे पैने औज़ार से
उसका गर्भाशय ,अंतड़ियां बाहर निकाल दें
बंद कमरे ,खेत ,सड़क या बस में
सुविधानुसार
उसमे कंकड़,पत्थर ,बजरी ,
बोतल ,मोमबत्ती,छुरी-कांटे और
अपनी सडांध भर दें
कई दिन तक ,कुछ लोग
बारी बारी से भरते रहें
जब आप पक जाएँ
तो उसे सड़क पर ,रेल की पटरी पर
खेत में या पोखर में छोड़ दें
पेड़ पर भी लटका सकते हैं
ध्यान रहे ,उलटा लटकाएं .
उसी की साडी या दुपट्टे से
टांग कर पेश करें
काम तमाम न समझें
अभिनव प्रयोगों के लिए असीम संभावनाएं हैं।
3.
उठायी हैं कुछ चुप्पियाँ
भरा है उनमे कुछ शोर
छोड़ दिया है शून्य में
सुनाई देते हैं
विस्फोट
निरंतर ..
4.
घूमती हूँ तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम सूर्य नहीं
मैं पृथ्वी नहीं
खींचती हैं चुम्बकीय शक्तियां
अदृश्य हो जाते हैं रात-दिन
खो जाती हैं ध्वनियाँ
आँखें मूंदे
चली चली जाती हूँ दूर तक
तुम्हारे पीछे
तय करती हूँ
हज़ारों मील के फासले
रोज़ मरती हूँ
जन्म लेती हूँ रोज़
हर जनम में
चलती हूँ तुम्हारे पीछे
नहीं
कोई मुक्ति नहीं
इस बंधन से
पिछले हर जनम के कर्मों ने
बाँध दिया है
अगले कई जन्मों के लिए
तुम्हारे साथ
5.
निर्लिप्त आसमान में चाँद अकेला सा
जब भी बादलों से नीचे झांकता
हाथ बढा देता
और फिर
ठिठक कर रुक जाता
अकेलेपन का आदी हो चुका
दो की भीड़ में
जीने का साहस
न जुटा पाता अब
6.
वो मेरे जैसा नहीं था
मुझमे भी कहाँ कुछ था उसके जैसा
फिर मेरे अन्दर
एक बदलाव ने ली करवट
और बदल दिया मुझे
सारा का सारा
बदलाव की एक लहर
और आई
उसके अन्दर
मेरे जैसा हो गया वो
सारा का सारा
फासला दरम्यां
फिर उतना ही रह गया ..
7.
अरसे से गुम
कुछ अलफ़ाज़ लौटे
कि जब तुम आये
अरसे से याद
कितने अलफ़ाज़ गुम हुए
कि जब तुम आए
इस दौरान हुआ यूँ
कि कुछ अनजाने अनचाहे लफ्ज़
रोज़मर्रा की जुबां बन गए
अखबारों में खून-खौफ खबर बना
सियासत रोज़ की रोटी हुई
दिमाग ने दिल से सोचना शुरू किया
और नए तर्क गढ़ने शुरू किये
ज़िन्दगी में कुछ जमा हुआ
तो घटा भी
दुनिया खून से सराबोर
सही-गलत में सनी
फैसले से फासले पर बनी रही
छोटी छोटी चालों के बंद लिफाफों में
बड़ी बड़ी मगरूर धमकियां आती रही
हार जीत की नई परिभाषाएं गढ़ी गई
दुनिया को जीतने का नक्शा उकेरा गया
आवारा गिद्धों-चीलों की चोंचें
खुद्दारी की पीठ
ज़ख़्मी करती रही
तुम्हारे भरोसे के क़दमों की आहटों में
ज़िन्दगी खुलती रही
बंद पलकों तले.…
8.
मेरे चुने हुए रास्ते में
न साया है न छाया
न जल न बल न छल
न पर्वत -न पहाड़
न जंगल न मंगल
न चाहत न राहत
मेरे सफर की मंज़िल का पहला कदम
दूर दूर तक फैले मरुस्थल के दामन का एक छोर
कुंठा और अवसाद रेत पर क़दमों के निशाँ
होकर भी न हुए मेरे हमसफ़र
छूटते गए
तुम्हारे साथ बांटे गए
भरोसे के लम्हे ....
टूटते गए
लगातार चोट से
जुड़ने के सब पुल ...
दो विपरीत दिशाओं की पुकार पर
हम हैं
अपने अपने सफर पर....
9.
हंसी के दायरे सिमट कर
खामोशी की एक सीधी रेखा में
तब्दील हो चुके थे
लिबास से बाहर झांकता
एक ज़र्द चेहरा
अन्दर की ओर मुड़े दो हाथ
सिमटे पैरों के पंजे थे
कोशिश करने पर बमुश्किल
सुनी जा सकने वाली आवाज़ थी
घर और बाज़ार के बीच रास्ते में
दहशतें साथ चलने लगी थी
अजनबियों में दोस्त ढूँढने की कला
अब दोस्तों में अजनबी ढूँढने की
आदत बन गई थी
बंद दरवाजों की झिर्रियों से
आसमान के अन्दर आने की
गुस्ताखी नागवार थी
चौखट से एक कदम बाहर
और सदियों की दहशत
यही कमाई थी आज की
आजकल उसे
शिद्दत से महसूस होने लगा था
वो जो जिस्म लिए फिरती है
औरत का है
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10.
किशोरवय बेटियाँ
जान लेती हैं
जब मां होती है
प्रेम में
फिर भी वह करती हैं
टूट कर प्यार
माँ से
एक माँ की तरह
थाम लेती है बाहों में
सुलाती हैं अपने पास
सहलाती हैं
समेट लेती हैं उनके आंसू
त्याग करती हैं अपने सुख का
नहीं करती कोई सवाल
नहीं करती रिश्तों को
कटघरे में खड़ा
अकेले जूझती हैं
अकेले रोती हैं
और