(1)
जब कभी जागूँगा
तो तुम्हारी बात करूंगा,
अभी नींद मे हूँ
मुझे सोया रहने दो।
एक ख्वाब देखूंगा
दूसरी दुनिया का,
उड़ते परिंदो का,
गिरते झरनो का,
अभी वहम मे हूँ
मुझे खोया रहने दो।
अब आज नही
कल तुम आना
मरहम अपना तब लगाना
किस्से फिर सुनाना
बीती बातें सारी बताना...
पर आज नही
तुम अब कल आना
अभी नींद मे हूँ।
(2)
हाँ मैं शब्दों के जाल बुनता हूँ
फिर इस जाल को संभावनाओ के
समंदर मे फेंक,
उम्मीदों की मछलियाँ पकड़ता हूँ।
किंतु मै सौदा नही करता
मै उन्हे बेचता नहीं !!
यकीन मानो मै सिर्फ जाल बुनता हूँ
मछलियाँ पकड़ता हूँ
और छोड़ देता हूँ उन्हे...
मेरा मक़सद सिर्फ तुम्हें
एहसास दिलाना है
“सपनों की कीमत नही होती।“
फिर इस जाल को संभावनाओ के
समंदर मे फेंक,
उम्मीदों की मछलियाँ पकड़ता हूँ।
किंतु मै सौदा नही करता
मै उन्हे बेचता नहीं !!
यकीन मानो मै सिर्फ जाल बुनता हूँ
मछलियाँ पकड़ता हूँ
और छोड़ देता हूँ उन्हे...
मेरा मक़सद सिर्फ तुम्हें
एहसास दिलाना है
“सपनों की कीमत नही होती।“
(3)
जब शान्त था, अविचिलित था
जब न होश था, न मक़सद था
जब न पाना था, न खोना था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब अकेला था, अबोध था
जब न आकुल था, न व्याकुल था
जब न ईर्ष्या थी, न द्वेष था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब मासूम था, निष्कपट था
जब न प्यास थी, न आस थी
जब न शंका थी, न दुविधा थी
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब निरपराध था, निरीह था
जब न बुद्धि थी, न विवेक था
जब न ज्ञान था, न मान था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब निश्छल था, पवित्र था
जब न मतलब था, न लालच था
जब न अमीर था, न गरीब था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब अभिज्ञ था, अव्यक्त था
जब न पीड़ा थी, न पश्चाताप था
जब न सहयोग था, न आश्वासन था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
अब
जब मैं न शान्त हूँ, न अकेला हूँ
न अबोध हूँ, न निरीह हूँ
न अभिज्ञ हूँ, न पवित्र हूँ
मैं दुखी हूँ, संतापी हूँ।
जब न होश था, न मक़सद था
जब न पाना था, न खोना था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब अकेला था, अबोध था
जब न आकुल था, न व्याकुल था
जब न ईर्ष्या थी, न द्वेष था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब मासूम था, निष्कपट था
जब न प्यास थी, न आस थी
जब न शंका थी, न दुविधा थी
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब निरपराध था, निरीह था
जब न बुद्धि थी, न विवेक था
जब न ज्ञान था, न मान था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब निश्छल था, पवित्र था
जब न मतलब था, न लालच था
जब न अमीर था, न गरीब था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
जब अभिज्ञ था, अव्यक्त था
जब न पीड़ा थी, न पश्चाताप था
जब न सहयोग था, न आश्वासन था
मैं ख़ुश था, आनंदित था।
अब
जब मैं न शान्त हूँ, न अकेला हूँ
न अबोध हूँ, न निरीह हूँ
न अभिज्ञ हूँ, न पवित्र हूँ
मैं दुखी हूँ, संतापी हूँ।
(4)
कुछ खास नहीं
बस इतना कहना है
दामन मे दरिया है
सागर की तमन्ना है।
बस इतना कहना है
दामन मे दरिया है
सागर की तमन्ना है।
बहुत दूर तक घना अंधेरा है
उजाले की किरण साथ रखना है
खुले आसमां तले
चिराग लेकर चलना है।
मुश्किलें तो बहुत आयेंगी....मगर
आज़ चिंगारी को
गरजते तूफानों से लड़ना है।
पर्वतों के पार सुदूर
जहां मेरा गाँव है
ऐसा अनोखा, ऐसा विरल
कैसा अलगाव है,
मुझे दूरियों को खत्म कर
अपनों को जोड़ना है।
कुछ खास नहीं
बस इतना कहना है।
पंकज सिंह ‘मुसाफ़िर’
1 comments:
आगाज़ बहुत अच्छा है आगे बढ़ने की प्रबल सम्भावना है ...........ढेरों शुभकामनाएं