पेज संख्याः 320-00
मूल्यः 200/ रुपये
प्रकाशकः आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
लेखक परिचय
कहानी संग्रहः १-भेम का भेरू माँगता
कुल्हाड़ी ईमान २- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना ३- काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस
उपन्यासः गाँव भीतर गाँव
पुरस्कारः वागीश्वरी सम्मान प्रेमचन्द स्मृति कथा सम्मान
सम्पादनः १- बया त्रेमासिक पत्रिका के कुछ अंकों का सम्पादन २- लाल सलाम एक, लाल सलाम दो पुस्तिकाओं का सम्पादन
M-2/199, अयोध्यानगरी, इन्दौर-452011 ( म.प्र.)
ई मेल- bizooka2009@gmail.com
मोबाइल-09826091605
लेखक एक अभिकल्पना करता है। फिर अपनी अभियान्त्रिक दक्षता के साथ शब्दों और वाक्यों की संरचना खड़ी करता है। जिसके अंदर विचारों और संवेदना का संवहन होता है। यह संवहन ही उस संरचना को जीवंत करता है। परिणामस्वरूप एक कृति हमारे हाथ में आती है। जिसमें पाठक शब्दों और वाक्यों के पायदान पर चढ़ता हुआ, कृति में संरक्षित विचारों और संवेदना के साथ एकाकार हो जाता है और कृति की प्रतिकृति पाठक के मन में जीवंत हो उठती है। ऐसी ही प्रतिकृति अपने पाठक के मन में जीवंत करने में सफल कृति का नाम ‘गाँव भीतर गाँव’ है। लेखक सत्यनारायण पटेल ने शब्द चयन, वाक्य विन्यास, विचार बिंब, संवेदना के भावलोक, हर जगह अपने सृजनात्मक चुम्बक को प्रत्यारोपित किया है। जिसके परिणाम में कथानक पाठक को यथार्थबोध से ओतप्रोत कर देता है। उसकी चेतना भले ही वर्षों से सोयी पड़ी हो, उठकर करवट बदलने पर विवश हो जाती है। भले ही वह अपने स्वार्थ में सिमटा हुआ एक सामान्य नागरिक हो लेकिन इस उपन्यास से गुज़रने के बाद सामाजिक जिम्मेदारी उसके अंदर अँगड़ाई लेने लगती है। अंततः पाठक का मन उससे पूछ ही लेता है – अब तक जिया तो क्या जिया ? यदि यह सवाल पाठक के हृदय में जन्म लेता है, तो निश्चित तौर पर कृति का निहितार्थ पूरा होता है। हम कह सकते हैं कि सत्यनारायण की यह कृति हमारे समय की ज़रूरी कृति है। जिसे हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों को पढ़ना चाहिए जो महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में बैठ कर अच्छे दिनों की ढंका पीट रहे हैं।
यह उपन्यास मृत्यु से शुरू होकर जीवन की तरफ़ जाता है। जीवन के दाँव-पेंच से गुज़रता हुआ पुनः मृत्यु पर समाप्त होता है। उपन्यास के आरम्भ में मृत्यु जिस प्रगाढ़ दुःख और अवसाद को निर्मित करता है, वह आगे चलकर जीवन की ऊर्जा में बदल जाता है। इस बदलाव में स्वाभाविक जीवन के दृश्य और उनमें घटित-विघटित होनेवाले विचार हैं। कहीं कोई कृत्रिमता या कोई सायासपन नहीं है। एक संवेदना की नदी है, जो पूरे कथानक के प्राकृतिक लय में बहती रहती है। विचारों की लहरों पर सवार पाठक कथानक के मंतव्य तक पहुँच जाता है। पाठक को बार-बार यह महसूस होता है कि यही वह बहाव है, जिसकी वर्षों से उसे तलाश थी। इतना कुछ घटित करते हुए उपन्यास धीरे से वर्तमान समय की जटिल राजनीति और ग्रामीण परिवेश के निचले तबके में व्याप्त नीम कड़वे जीवन का चित्र पाठक के दिमाग़ में स्थाई रूप से जड़ देता है। कथानक में मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र की पृष्ठभूमि है, मालवा के जीवन का गंध-सुगंध है, यहाँ की सांस्कृतिक सुन्दरता है तो यहाँ पर मालवी जन-जीवन का संगीत निरंतर गुंजायमान है। मालवा के धुन में रचे-बसे इस कथानक से गुज़रने के बाद पाठक को लगता है कि वह यहाँ का ही निवासी है। पाठक मालवा में और मालवा पाठक में उतर जाते हैं। एक तरह से इस उपन्यास से गुज़रना मालवा में प्रवास के जैसा अनुभव देता है।
हेगेल ने कहा था कि उपन्यास आधुनिक मध्य वर्ग का महाकाव्य है। इसमें थोड़ा छूट लेते हुए कहें कि ‘गाँव भीतर गाँव’ समाज के दलित-दमित वर्ग का महाकाव्य है, तो यह ग़लत नहीं होगा। तीन सौ बीस पृष्ठ के इस उपन्यास में जीवन के यथार्थ को पकड़कर लेखक ने एक ऐसी श्रृंखला तैयार की है, जिसमें घटनाएं काव्यात्मक बिम्बों में आकार पातीं हैं। लेखक लिखता है – “कैलास का न रहना। झब्बू की माँग से सिन्दूर का मिटना भर नहीं, बल्कि चाँद से चाँदनी का, पत्तों से हरेपन का, आँख से सपने का छीन जाने जैसा, और जीवनाकाश पर अमावस की रात का छा जाने जैसा भी था।” नायिका झब्बू बलाई जाति की है। जो मुख्यतः मज़दूरी और हम्माली करके अपना पेट पालते हैं। इनकी जिंदगी गाँव के पटेलों की चाकरी में गुज़रती है। पीढ़ियों से गाँव के पटेल इन जातियों के अन्नदाता और मालिक की तरह से मान्य हैं। यहाँ पर एक ऐसी स्त्री की गाथा है, जिसकी तरूणाई में पति मर जाता है। वह शहर में सब्जी बेचनेवाले माता-पिता के साथ रहने के विकल्प को ठुकरा कर वापस गाँव के अपने पति के झोपड़े में रहने का वरण करती है। यहाँ पर शहर के आकर्षण पर उसके पति का प्रेम भारी पड़ता। वह गाँव लौटती है और अपने पति की स्मृतियों और प्रेम से पगे हुए उसी झोपड़े में नया जीवन शुरू करती है। यहाँ पर पति का प्रेम उसके अन्दर ताकत की तरह भर जाता है और स्मृतियाँ जीवन विवेक में बदल जातीं है। यह एक तरह की स्थापना है कि - वह एक मजबूत स्त्री है। सामान्यतः जीवनसाथी के मृत्यु के बाद स्त्रियाँ बिखर जातीं है। एक भयानक टूटन और अंधकार से भरे भविष्य के सुरंग की कल्पना, उनके मनोबल को तहस-नहस कर देती है। इन मनःस्थितियों में मजबूत से मजबूत व्यक्ति भी डगमगा जाता हैं। झब्बू भी इन मनःस्थितियों से गुज़रती है। लेखक लिखता है कि – “झब्बू जब पहले कभी हँसती.., उसके कत्थई मसूड़ों में धँसे दाँत सफ़ेद मक्का के दानों की तरह चिलकते। झब्बू की खनकदार हँसी ही उसका सबसे ख़ूबसूरत गहना थी। असल और खरी। नीम पर बोलते मोरों की आवाज़ की तरह सची और भरोसे मंद। जब तक कैलास रहा। झब्बू की हँसी का मुरीद रहा। जब कैलास चला गया। झब्बू की हँसी भी उसके पीछे-पीछे जाती रही। उसकी जामुनी, और आकर्षक पुतलियों के पीछे के मटमैले भाग पर लाल-लाल डोरों के ज़ाल का साम्राज्य फैलने लगा। डोरे शायद अल्प निद्रा, और अशांत मग़ज़ में चलती उठा-पटक से उभरने लगे। अचानक ही झब्बू की ज़िन्दगी का हुलिया टिटोड़ी के अंडे-सा बदरंग हो गया। उदासी का गहरा-गाढ़ा रंग भी कुछ ज़्यादा ही घुलने, और खिलने लगा। ” उदासी का यह गाढ़ा रंग वस्तुतः एक तरह की जिन्दगीं के समाप्त होने के बाद, दूसरी तरह की जिन्दगी के शुरू होने का रंग है। जहाँ उसके जीवन की चुनौती को रेखांकित करते हुए लेखक लिखता है कि – “जब झब्बू रांडी-रांड हुई, तब उसकी गोदी में तीन-चार बरस की रोशनी थी। आँखों में सपनों की किरिच, और सामने पसरी अमावस की रात सरीकी ज़िन्दगी, जो अकेले अपने पैरों पर ढोनी थी। उजाड़ ज़िन्दगी का बोझ भरी-पूरी ज़िन्दगी से बहुत भारी था। पर ढोना तो था, न ढोती, तो क्या करती…? उजाड़ ही सही, पर थी तो उसी की ज़िन्दगी…। ” यानि एक विवश जीवन उसके सामने खड़ा था। यहाँ समझौता करने के बहुत सारे अवसर थे। उसके समाज में इसका सर्वमान्य विकल्प था, जो अन्य विकल्पों की तुलना में बेहतर भी था। जिसमें वह किसी पटेल की रखैल बन जाती और उसके हवस के मशीन में पिसते हुए जीवन गुज़ार लेती। परोक्ष और अपरोक्ष रूप से उसे निमंत्रण भी मिले। वह जिस तबके से सम्बन्ध रखती है, वहाँ पर जीवन की अस्मिता सिर्फ दो जून की रोटी का जुगाड़ भर है। इसकी एवज़ में क्या छूट रहा है, क्या गंवा रहे हैं, यह सोचने की परम्परा सदियों से नहीं रही है। यदि कोई एकाध इसके विपरीत चलने की कोशिश करता या अपनी अस्मिता और इज्ज़त की बात करता तो गाँव के दबंग उसको मिटा देते थे। झब्बू यदि अपने इस परम्परागत जीवन शैली को अपना लेती तो यह उपन्यास नहीं होता। इस उपन्यास को तो प्रेमचंद की परिभाषा को चरितार्थ करना था। प्रेमचंद कहते हैं कि – “उपन्यास मानव चरित्र का चित्र मात्र है।” झब्बू को तो प्रेमचंद के इस मानव चरित्र का चित्र बनना था। एक आख्यान रचना था, स्वयं महाकाव्य होना था।
लेखक ने शुरू से ही झब्बू के चरित्र में छुपी एक मजबूत और संघर्षशील स्त्री का संकेत दे दिया है। आगे की घटनाओं में वह उसे मजबूत भी करता चलता है । झब्बू के पति का मालिक दौलत पटेल उसके दरवाज़े पर आ कर, पति कैलास के मृत्यु के एवज़ में दस हज़ार रुपए देने का पेशकश करता है, तो वह कहती है – “....... क्या करूँगी, दस हज़ार रूपये का….? इसके बदले में तो… झब्बू कहते-कहते चुप हो गई। मग़ज़ में ख़याल कुलबुलाया कि कहीं छोटा मुँह बड़ी बात न हो जाये। लेकिन मुँह न खोलूँ तो क्या करूँ..? आगे ज़िन्दगी में पसरी अँधेरी रात कैसे कटेगी ? कैसे अपना पेट पालूँगी..? कैसे रोशनी को उछेरुँगी..? झब्बू को कुछ सूझ भी तो नहीं रहा ! उस वक़्त भीतर जो सूझा, बाहर प्रकट कर दिया- मत दो दस हज़ार रुपये। मुझे तो… सुसाइटी में चपड़ासण की नौकरी दे दो । मेरा और मेरी छोरी का पेट पल जायेगा।” यहाँ पर दस हज़ार रुपए को ठुकराना और चपड़ासण की नौकरी की मांग करना। झब्बू के आत्मस्वाभिमान को रेखांकित करता है। यह अलग बात है कि पटेल नौकरी देने से मना कर देता है और यह दस हज़ार हाथ से जाते देख माँ के दबाव में वह रुपए रख लेती है। गाँव में रहकर सिलाई सीख लेती है। सिलाई के काम से जीवनयापन भर की आमदनी हो जाती है। शहरी होने के नाते अख़बार पढ़ना और देश-समाज की घटनाओं को जानते समझते रहना, उसकी दिनचर्या में शामिल था। व्यक्तित्व का यह अलग आस्वाद गाँव की स्त्रियों में उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाता है। धीरे-धीरे गाँव की दलित स्त्रियों का एक समूह उससे जुड़ जाता है। उसकी योग्यता और जागरूकता के प्रभाव में आकर स्त्रियाँ उसको अपना सलाहकार और प्रतिनिधि मानने लग जातीं हैं। उसका घर एक तरह से स्त्रियों के चौपाल में बदल जाता है। जहाँ गाँव की दलित-दमित स्त्रियाँ अपने सुख-दुःख पर चर्चा करतीं हैं, साथ ही देश-दुनिया और सरकार के बारे में भी कुछ जानने-समझने का प्रयास करतीं हैं। यह एक तरह की ताकत थी, जो नैसर्गिक रूप से बनने लग जाती है। शर्त सिर्फ यह होता है कि जीवन विवेक और संघर्ष की ऊर्जा उपस्थित हो। जीवन विवेक और संघर्ष की ऊर्जा के रूप में झब्बू उपस्थित थी, बाकी स्त्रियाँ उससे जुड़कर इस नैसर्गिक ताकत को पल्लवित कर रहीं थीं। धीरे-धीरे यह ताकत रंग दिखाता है। पहले चरण में स्त्रियों ने गाँव की कलाली को हटवा दिया। यहाँ पर उपन्यास को एक अंश उल्लेखनीय है – “रामरति जैसे दाँतों से चना फोड़ती बोली- जैसे कलाली का पाप काटा। ऎसा ही कुछ कर झब्बू ! ताकि मैला झाड़ने से मुक्ति मिले। ....... मैंने रफीक़ भाई से भी बात की। उनने कहा कि खाली चार औरतों से बात नी बनेगी..। झब्बू आदि भी साथ हो, तो बात बने ! ” इस विकास क्रम में झब्बू गाँव का चुनाव लड़कर सरपंच बन जाती है। उसने अपनी बेटी रोशनी को ननिहाल में पढ़ने के लिए भेज दिया है। उसकी बेटी भी सूचना और ज्ञान का स्रोत बन जाती है। यहाँ तक की यात्रा इतनी सहज न थी। दबंगों के बीच की प्रतिक्रिया को इस अंश से समझ सकते हैं - “स्साली की अक़्ल ठिकाने पर लगानी ही होगी…! पर कैसे…? क्या तरक़ीब हो सकती..? जाम सिंह ने मन ही मन ख़ुद से पूछा। ” इस एवज़ में झब्बू को बलात्कार जैसी यातना झेलना और तमाम तरह की दुश्वारियों से गुज़रना पड़ा। एक अंश यहाँ पर उदाहरण की तरह देखा जा सकता है - “झब्बू का उघड़ा बदन ढँकने लगी। श्यामू, रामरति मटके से पानी लेती, झब्बू के मुँह पर छींटने लगी। झब्बू को पानी पिलाने की कोशिश करती। झब्बू की नाक के पास उँगली लगाती, खातरी करने लगी कि झब्बू की साँस चल रही कि टूट गयी।......... किसने किया होगा..! कौन कर सकता !… और क्यों करेगा.. ! रांड रंडापा काटे, पर रंडवे काटने नी दे..! .......ज़रूरत पड़ने पर बाखल की ख़ातिर ठाकुरों, और पटेलों से भी भिट ले लेती। तभी भीड़ में से कोई बोला- ये ही बात तो दुःख दे गई। ........झब्बू को चोटें उतनी गहरी नहीं लगी। जितना गहरा मानसिक आघात लगा। ........ जब भी वह होंश में आती, ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगती। दया, दामू , और साथी हम्मालों को ग़ालियाँ बकती।......फिर एक दिन जब झब्बू उठी। न चीख़ी, न चिल्लायी। बहुत सामान्य ढँग से बाते करने लगी। ....... झब्बू ने दृढ़ स्वर में कहा- रिपोर्ट लिखानी है .......... दृढ़ स्वर में बोली - जो हुआ.. उसे यूँ ही नी भूल सकती। रहूँगी भी वहीं। उन्होंने तो मेरे शरीर पर जुलुम किया है..। लेकिन मैं उनकी छाती पे मूँग दलूँगी..। अब मेरे पास और बचा ही क्या है.. जो लूटेंगे..छीनेंगे..? मुझे जिसका भय हो..डर हो..कुछ भी तो नी ऎसा..! ”
झब्बू हर संकट के बाद और मज़बूत होकर उबरती है। इस मज़बूती ने उसे सरपंच के पद तक तो पहुँचा दिया लेकिन हमारे समाज में तो स्त्री सरपंच को ही पचाना भारी है। ऊपर से वह दलित भी थी। स्वीकार करना इतना आसान न था। उसका अपमान और बार-बार औकात समझाने की कवायद जारी रही। इस बीच उसकी बेटी पत्रकार बन गयी। वह उससे भी दो कदम आगे निकली और समाज को बदल डालने की कसम खा कर बैठी थी। उसके रिपोर्ट और समाचार अच्छे-अच्छों की नींव हिलाने लगे। जब मंत्री जी वगैरह को पता चला कि रोशनी झब्बू की बेटी है, तो उसे विधायक का टिकट देने की लालच देकर अपनी बेटी पर लगाम लगाने की बात हुई। सरपंच बनने के बाद सत्ता की फिसलन झब्बू के अंदर शुरू हो गयी थी। अब वह कार से चलने लगी थी। फूल छाप पार्टी की सदस्य बन गयी थी। नई झब्बू बन गई। वस्तुतः फिसलते हुए वह एक मकड़ जाल में फंसती जा रही थी। जहाँ फंसने के बाद आदमी प्यादा हो जाता है। ज्यादातर सीधे-सच्चे और मजबूत लोगों को धूर्त और दबंग लोग इसी तरह से निपटाते हैं। स्थिती यह हो गयी कि उसकी बेटी ही ख़ुद उसपर शक करने लगी। अंततः उसने झब्बू की बात नहीं सुनी और उसे भी चिरपरिचित पुलिसिया दाँव से मंत्री जी ने निपटा दिया। झब्बू के कार को ट्रक से उड़ा कर, संतोष पटेल के लिए विधायक की ज़गह बन गयी। कथानक के अंत में फिर एक चिता जलती है। झब्बू की चिता। रोशनी को थाने में रौंदकर कोर्ट के माध्यम से मंत्री जी ने जेल पहुँचा दिया गया था। शुरू से हर सुख दुःख में उसके साथ रहे जग्या को झब्बू की जलती हुई चिता बरदाश्त न हुई और वह खूँटा घोंपकर अर्जुन सिंह की हत्या कर देता है। विद्रोह के इस आग़ाज़ के साथ उपन्यास समाप्त हो जाता है।
कथानक में सृजित विचारों के आईने मे भारतीय समाज के हर अंग के यथार्थ को स्पष्ट देखा जा सकता है। चाहे वह पंचायती राजनीति की गंदगी हो, मुख्य धारा की राष्ट्रीय राजनीति में व्याप्त वीभत्स कूटनीति हो, गाँव के दिनचर्या में जीवन की दाग़दार छवियाँ हों, स्कूल की जी हज़ूरी हो, कठपुतली पत्रकारिता हो, पुलिस की चमचागीरी और भ्रष्ट तंत्र हो, दलित समाज का त्रासद जीवन हो या दबंगों का अत्याचार हो, सब कुछ यहाँ पर पूरी प्रमाणिकता के साथ उपस्थित है। एन.जी.ओ के कार्य प्रणाली की बखिया भी रफ़ीक के माध्यम से बहुत ख़ूबसूरती से उधेड़ा गया है। सूत्र में कहें तो हमारे समय के समग्र समाज को इस कथानक में धड़कते हुए महसूस किया जा सकता है। उपन्यास से अपेक्षा रहती है कि वह अपने समकाल या किसी भी कालावधि को समग्र रूप से उद्घाटित करे। एक अलग तरह का किन्तु प्रामाणिक इतिहास उपन्यासों में दर्ज होता है। लेखक यहाँ पर सफ़ल है। उसने अपने लेखकीय कौशल की दक्षता को प्रमाणित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कथानक में समाज के हिस्से की तरह पंक्षियों की उपस्थिति और उनका संवाद संप्रेषणियता को बढ़ता है। छोटे-छोटे वाक्य, संवाद के माध्यम से कथा का विकास, परिवेश और भाषा में देशकाल की जीवंतता, काव्यात्मक बिम्ब विधान तथा सहजता के कारण इस कृति का पाठ, पाठक को जोड़कर रखता है। अंतिम पन्ने को पलटने के बाद पाठक के अंदर उपन्यास पुनः घटित होने लगता है। क्योंकि अपने सरोकारों और चेतना में पाठ के दौरान पाठक और भी समृद्ध हो जाता है। पाठ के बाद हमारे समय के सारे विमर्श साफ़-साफ़ दिखने लगते हैं। चाहे वह दलित विमर्श हो, स्त्री विमर्श हो, वर्ग भेद हो, साम्प्रदायिकता हो, धार्मिक अंधता हो, व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार हो, तंत्र का मंत्र हो तथा शोषण की संस्कृति हो, सबके नंगे सच को देखने की दृष्टि उपलब्ध करवानें में यह कृति सफल है। पाठ उपरान्त पाठक के अन्दर का मनुष्य उठ खड़ा होता है और चिन्तन की एक श्रृंखला सृजित करता है। जिसमें नागरिकबोध और हस्तक्षेप की ताकत का उत्कर्ष मिलता है।
अगर हम हिन्दी के उपन्यास परम्परा मे इस उपन्यास की ज़गह तलाशने की कोशिश करें तो हमें फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के बहु चर्चित उपन्यास मैला आंचल की भूमिका याद आती है - “ यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया। “ रेणु जी के इस कथन में मैला आंचल की जगह “गाँव भीतर गाँव “ भीतर लिख दें बाकी पूरा कथन इस कृति के लिए भी लागू होता है। मैं इस कृति को आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में देखते हुए अपने तरह का एक मात्र उपन्यास पाता हूँ। जिसमें मालवा का समकाल इतना याथार्थ परक है कि उपन्यास के पात्र और फूल छाप पार्टीं को अच्छी तरह से पहचान सकते हैं, और कह सकते हैं कि यह पात्र फलाँ व्यक्ति है। हमारे समय के ग्रामीण राजनीति की तुच्छता और उससे संघर्ष करने की जीजिविषा का प्रामाणिक आख्यान इस उपन्यास की हर पंक्ति में दर्ज है। इसको पढ़ते हुए लगातर मिथिलेश्वर के ‘यह अंत नहीं ’ की चुनिया, मैत्रेयी पुष्पा के 'अल्मा कबूतरी ' की कदमबाई और अल्मा, वीरेन्द्र जैन के 'डूब ' की लुहारन गोराबाई या ' पार ' की तेजस्विनी, संजीव के 'जंगल जहाँ शुरू होता है ' की मलारी, रांगेय राघव के 'कब तक पुकारुँ ' की करनट नारी, हिमांशु जोशी के 'कगार की आग ' की गोमती, पंकज विष्ट के 'उस चिड़िया का नाम ' की पहाड़ी नारी, मणि मधुकर के 'पिंजरे में पन्ना ' की पन्ना और रम्या तथा रामदरश मिश्र के 'बीस बरस ' की पवित्रा और वंदना की याद आती है। यह सूची और भी बड़ी हो सकती है, किन्तु झब्बू सूची का अगला नाम निश्चितरूप से है। यहाँ पर पुस्तक के नाम को लेकर एक और साम्यता निकल कर सामने आती है। रामदरश मिश्र के उपन्यास 'बीस बरस' की शिक्षित दलित पवित्रा गाँव के शोहदों को जब सबक सिखाती है तो उसके साहसी कारनामों को देखकर उपन्यास का पुरूष पात्र दामोदर सोचता है - ''मुझे लगा कि इस गाँव के भीतर एक और गाँव जन्म ले रहा है। '' (बीस बरस पृष्ट 103) दामोदर की सोच में जन्मे इस गाँव की कहानी प्रस्तुत कृति ‘गाँव भीतर गाँव में ’ विस्तार पाती है।
अंत में सिर्फ इतना कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा था कि – “जन्म से ही उपन्यास यथार्थ जीवन की और उन्मुख रहा है।” इस कथन के वकालत में उचित और प्रमाणिक उदाहरण की तरह इस उपन्यास को रखा जा सकता है। इतने प्रासंगिक और बैचैनी से भरे कथानक को बुनने के लिए लेखक साधुवाद का पात्र है। इसको पुस्तकाकार करने के लिए प्रकाशक को भी बहुत बधाई ।
समीक्षक
प्रदीप मिश्र
लेखक कवि एवं युवा आलोचक हैं.
दिव्याँश 72ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, पो.- सुदामानगर, इन्दौर – 452009 (म.प्र.)। मो. 09425314126, mishra508@gmail.com