राकेश बिहारी की यह कहानी “परिधि के पार” बहुत ही संवेदनशीलता से वर्षों से चली आ रही उस व्यवस्था को चित्रित करती है जिसमें विवाह और उसके नाम पर खींची गयी परिधि के अंदर दबी होती हैं कई जिंदा ख्वाहिशें, कई सांस लेते सपने और कई हाड़-मांस के बने अस्तित्व। यह विडम्बना ही है कि प्रेम और सुरक्षा के नाम पर बनी यह सामाजिक व्यवस्था कभी-कभी एक ऐसी गिरह बन जाती है कि एक जीती जागती स्त्री सिर्फ एक ट्रौफ़ी वाइफ़ में तब्दील हो कर रह जाती है । यह स्थिति तब वास्तव में हमारी पुरुष सत्तात्मक समाज का एक भयावह षड्यंत्र लगती है जब सब्जी में डला नमक एक स्त्री के वजूद से बड़ा हो जाता है। जरा कल्पना कीजिये इस स्थिति का कि उल्लास से भरी एक स्त्री अपने पति को अपनी बनाई कृति दिखाती है और वह ताने कसता है कि आज तो एक ही सब्जी बनी होगी फिर! जैसे कि एक स्त्री की परिधि बस उसकी रसोई,उसके बच्चे और उसका घर ही है उसके परे अगर कुछ है तो वह अनैतिक है, अवैध है, मर्यादा का उल्लंघन है।
कहानी स्त्री हृदय को बहुत ही बारीकी से बुनती है । कई बार तो कुछ इस हद तक कि आश्चर्य होता है इस कहानी को एक स्त्री ने नहीं पुरुष ने लिखा है। एक पुरुष मित्र द्वारा अपनी सैलेरी स्लिप पढ़ कर बताना और अपनी दोस्त के भविष्य के लिए रेकरिंग डिपोजिट खोलने की इच्छा भर जताना एक स्त्री को इतने उल्लास से भर देता है कि वह कह उठती है “ तुमने इतना सोचा, वही बहुत है”
तमाम स्त्री मुक्ति के उद्घोषों और बदलती आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्तर के बाद भी कहीं न कहीं स्त्री हृदय का सच यही है कि उसे दरकार है एक स्नेहिल सहचर की जो उसके अस्तित्व का सम्मान करे, उसके ख़्वाहिशों को समझे और उसका खयाल करे उतना ही जितना वह खुद करती है ...इतना कि अपने सपने, अपना जीवन भी स्वेच्छा से हाशिये पर डाल देती है।
हालांकि कहानी कोई प्रत्यक्ष समाधान नहीं सुझाती। हमारी सामाजिक बुनावट के मद्देनजर शायद कोई सीधा समाधान है भी नहीं सिवाए घर जैसी संस्था के विघटन के और यह इतना आसान नहीं । लेकिन फिर भी कई बार कहानी की नायिका नेहा की निर्भरता, परिस्थिति से संघर्ष नहीं कर पाने की उसकी अवशता उलझन में डालती है लेकिन उसकी बिटिया के व्यक्तित्व में रचनाकार ने इस उलझन का उत्तर दे दिया है। यह शायद वह जेनेरेशन गैप भी है जहाँ खुशी उस नयी पीढ़ी की नायिका का प्रतिनिधित्व कर रही जो परिस्थितियों के हवाले नहीं करती खुद को, बल्कि उसको बदलने के संकल्प के साथ आगे बढ़ती है अपनी माँ के लिए और खुद के लिए भी ...
पढ़िये राकेश बिहारी की कहानी “परिधि के पार”
नेहा ने उस रात अपनी डायरी के पन्नों पर लिखने के बजाय कुछ तस्वीरें उकेरी थी... गहरे नीले आसमान की गोद में खूब-खूब चमकता पूरा चांद, भर आकाश जगमगाते सितारे और नीचे फूलों से लदी रातरानी... डायरी के हल्के बादामी सफे पर खिली रातरानी की भीनी सी महक नथुनों के रास्ते हौले-हौले उसके भीतर तक उतर रही थी. वह जैसे ख्वाबों की किसी नई दुनिया में पहुंच गई. उसकी उंगलियों में एक अनोखी सी जुंबिश हुई और उसने पूनम के चमकते चांद के बाजुओं पर दो सुनहरे पंख जड़ दिये... उन पंखों पर जैसे वह खुद सवार हो गई थी... वह नीले आसमान के लगातार करीब होती जा रही थी... लाल और गंदुमी रंगों के विरल संयोग से बना कोई अदृश्य सूरज अपनी पूरी आभा के साथ उसकी नसों में किसी मीठे संगीत की तरह उतरने लगा था... वह एक अनाम रोशनी से नहा सी गई थी....
...अभिनव अपनी हर अगली बातचीत में उसे चौंका सा जाता है और हर उस चौंकाने वाली बात के बाद जैसे वह थोड़ी और सरक कर उसके कुछ और करीब हो जाती है... उस शाम जब फोन पर वह उसे अपनी ताज़ा पे स्लिप पढ़ कर सुना रहा था, नेहा के भीतर जैसे स्नेह और अधिकार की एक गुनगुनी सी नदी बह उठी थी... मंद, मंथर लेकिन एक अनोखे सुकून से भरी हुई..... कितना मूल वेतन, कितना डी. ए., कितने दूसरे पर्क्स, कितनी अन्य कटौतियां.... और अंत में एक मासूम सी ईच्छा... "नेहा, इन दिनों मेरा मन एक रेकरिंग डिपोजिट शुरु करने का हो रहा है, जिन्हें मैं कभी खर्च न करूं... भगवान न करें कभी ऐसी जरूरत पड़े लेकिन यदि कभी कोई मुसीबत आई तो वह तुम्हारे काम आ सके..." नेहा के लिये यह अप्रत्याशित था. वह जानती है उसे किसी के पैसों की कोई जरूरत नहीं. उसके हिस्से की पिता जी की सम्पत्ति और उसके गहने-जेवर पर्याप्त हैं उसे किसी मुसीबत से उबारने के लिये लेकिन कोई है जो उसके लिये ऐसा सोचता है, इस सोच भर ने उसे भीतर तक भर दिया था... नरेन की आमदनी कितनी है उसे आजतक नहीं मालूम, न कभी उसने बताया और न हीं कभी उसने अपनी तरफ से जानने की कोशिश ही कि.. उसकी आंखों ने जैसे उसकी आवाज़ पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी और भर्राइ सी आवाज़ में उसने बस इतना ही कहा था... " तुम मेरी खातिर इतना सोचते हो मेरे लिये यही बहुत है..."
चांद का रथ तेज गति से दौड़ रहा था. सितारे अपनी पूरी ताकत से चमक रहे थे और रातरानी अपनी खुश्बू से उसे लगतार मदहोश किये जा रही थी. उसके भीतर संगीत की लय और एक चिरपरिचित दर्द की लहरें एक ही साथ उठ-गिर रही थीं. नरेन ने जो उसे बीस सालों में नहीं दिया, अभिनव चंद दिनों में ही जैसे वह सब अपनी हथेलियों में लिये उसके आगे खड़ा था. अब तक तो वह मानो हर पल, हर क्षण अपनी आसन्न मृत्यु के इंतजार में थी. लेकिन एक मात्र उसके होने के अहसास भर ने जैसे सबकुछ बदल सा दिया था. ज़िंदगी नये सिरे से उसके भीतर दस्तक देने लगी थी. अब वह जीवन की प्रतीक्षा में खुशियों के सिंगारदान के आगे सजती-संवरती... उसे तो पता भी नहीं था कि उसकी मांस-मज्जा में एक सितार सोया पड़ा है और जिसे जीवन से भरी किन्हीं उंगलियों का इंतजार है. .. अभिनव ने जैसे उसके मन की गहराइयों को थाह लिया था. उसके संस्पर्श भर से वर्षों से सोया पड़ा वह प्रतीक्षातुर सितार पूरे आवेग के साथ एक झंकार से भर उठा था. उसके भीतर एक मीठी सी कंपन हुई थी, एक पुलक भरी सिहरन सी और उसका रोम-रोम जैसे एक आदिम नशे से थिरक उठा था... अपने तन-मन पर पड़े नख-दंतों के अनगिनत खरोंचों पर वह अभिनव की मुलायम, उष्ण और अपनी सी आवाज़ को रूई के नर्म फाहों की तरह रख लेना चाहती थी... उसकी आवाज़ में एक अद्भुत सी लय है. वह महज आधे-एक घंटे की बातचीत में जैसे बीते चौबीस घंटों का एक-एक पल उसके साथ फिर से जी लेना चाहता है... शुरु-शुरु में उसे अजीब-सा लगा था यह सब. लेकिन अब तो जैसे सारा दिन उसे उसी एकाध घंटे का इंतजार रहता है. जीवन में कोई ऐसा हो जिसके साथ अपना हर पल साझा किया जा सके, यह उसका बहुत ही पुराना सपना था. लेकिन पिछले बीस वर्षों में ज़िंदगी की जो हकीकतें उसने देखी है उसके बाद तो ऐसे ख्वाब उसे किसी प्रवासी पंछी की तरह ही लगते है... खूबसूरत, मनमोहक लेकिन बहारों के बाद चले जाने वाले... लेकिन नहीं, अभिनव ने धीरे-धीरे उसकी शिराओं में भरोसे की मजबूत लकीरें खींच दी है... भरोसा इस बात का कि न तो वह प्रवासी पंछी की तरह है और न हीं किन्हीं बहारों के मौसम का मेहमान... उसकी बातें उसकी नसों में जैसे आश्वस्ति बनकर उतरती है.
उस दिन अभिनव को उसने अपनी कुछ पुरानी पेंटिग्स मेल की थी जिनमें से कुछ की तस्वीरें उसने उसके कॉलेज के संग्रहालय में देखी थी और वहीं से खोजता-खोजता उस तक आ पहुंचा था. नेहा को पता है कि वह ठीक-ठाक सी पेंटिग्स कर लेती है लेकिन अभिनव ने जिस आत्मीय तन्मयता के साथ उन पेंटिंग्स के रंग-संयोजन, दृश्य-विधान आदि पर उससे बातें की थी, उसे अपनी पेंटिग्स के नये अर्थों का पता-सा लग गया था. नेहा अभिनव की आवाज़ के ज़ादू से तो उसी दिन परिचित हो गई थी जिस दिन उसका पहली बार फोन आया था लेकिन आज वह उसकी दृष्टि पर भी मुग्ध थी. वह अचानक पुलक से भर गई..." अभिनव, मैं फिर से पेंटिग करुंगी.’
अभिनव को उसकी आवाज़ में जैसे खुद की सफलता मचलती सी लगी थी... " नेहा मैं भी यही चाहता हूं.. और हां, मैं तुम्हारी हर पेंटिंग का पहला दर्शक और क्रिटीक होना चाहता हूं. तुम अपनी हर पेंटिंग पूरी कर के सबसे पहले मुझे मेल करोगी न? "
अभिनव की बातें नेहा के रोम-रोम में नमक की तरह घुल रही थीं, उसे कतरा-कतरा अपनी आंच से पिघलाती हुई... धीमी से आवाज़ में उसने कहा था- "हां..." अचानक से जैसे उसकी आंखों में कुछ शीशे की किर्चों सा चुभा था... अभी उसने अपनी शादी की पहली सालगिरह भी नहीं मनाई थी. उस दिन अपनी एक पेंटिग पूरी होने के बाद वह नरेन के घर लौटने का इंतजार कर रही थी. और उसके आते ही बहुत उत्साह से उसे उस कमरे तक ले गई थी जिसे वह मन ही मन अपना स्टूडियो कहती थी... नरेन ने अनमने ढंग से उसकी पेंटिग पर नजर दौड़ाते हुये कहा था.. " तो फिर आज एक ही सब्जी बनी होगी... मैडम, आपकी इस पेंटिंग से मेरा पेट नहीं भरने वाला... और पेट किसी तरह भर भी जाय तो मन तो तब तक नहीं भरता जब तक कि खाने की थाली में चार-पांच कटोरियां न शामिल हों..." नेहा के भीतर मिभ्ी का जो घड़ा न जाने कब से आकार ले रहा था... जिसके पकने की सोंधी सी महक न जाने कब से बाहर आने को मचल रही थी, जैसे पलक झपकते ही टूट कर बिखर गया. उसे आश्चर्य हुआ था कोई कलाकार किसी दूसरे की कला वह भी अपनी पत्नी की कला के प्रति इतनी निर्मम उदासीनता भी दिखा सकता है. उस दिन उसके भीतर जो दरका वह फिर कभी नहीं जुड़ पाया. वह आखिरी दिन था जब उसने नरेन से अपनी पेंटिग के बारे में कोई बात की थी. उसके भीतर का कलाकार जैसे खाद-पानी के अभाव में अंदर ही अंदर मुरझाने लगा था. स्टूडियो में लगी इजेल और उसकी कई अधूरी पेंटिंग्स दिनों तक धूल खाने के बाद एक दिन कब-कैसे चुपचाप वहां से निकल कर स्टोर रूम के विस्थापित कैंप में चली गई उसे भी पता नहीं चला... क्षण भर पहले की पुलक पर जैसे बीस वर्ष पुरानी यादों ने एक कसैलापन फेर दिया था... वह जैसे चुप सी हो गई... अभिनव ने उसकी चुप्पी को धकलने की कोशिश की थी.. " क्या हुआ? कहां गुम हो गई? कुछ बोलो भी?’.."
" नहीं कुछ नहीं.. मैने बोला न, हां.."
"तुम्हारा फैन तो मैं तुम्हारे कॉलेज के संग्रहालय में ही हो गया था, मेल पर तुम्हारी पेंटिंग्स देख कर अब तुम्हारा कूलर हो गया हूं."
नेहा ने हंसने की कोशिश की थी... "हूं, लेकिन ए सी कब बनोगे?"
"मैं तो कब से तैयार बैठा हूं. मौका तो दो... कहा न तुम्हारी हर पेंटिंग मैं सबसे पहले देखना चाहता हूं... और हां, तुम्हारा यह कूलर तुमसे वादा करता है कि तुम्हारा ए सी तुम्हारी हर पेंटिंग पर एक कविता लिखेगा." नेहा ने अपने पोर-पोर में एक अजीब सी थिरकन महसूस की.. उसका रोम-रोम जैसे कूची में बदलने लगा था और न जाने जीवन के कितने रंग उसकी आंखों से बह निकले थे जो न जाने कब से सूखे पड़े थे, पपड़ियाये...
बाहर मौसम बदल रहा था. आसमान में उड़ते बादल जैसे लम्बे तने शीशम की झूमती फुनगियों से गले मिल रहे थे. कोई दूसरा दिन होता तो वह खिड़की दरवाजे बन्द करती, छत पर फैले कपड़े समेट लाती... लेकिन आज उसका मन हुलस रहा था...वह छत तक निकल आई... देखते ही देखते मोटी-पतली बूंदे मूसलाधार बारिश में बदल गई थीं. अलगनी पर पड़े कपड़े भींगते रहे थे और वह देर तक बरसते बादलों से बतियाती रही थी. उसके भीतर वर्षों से फैले मरु का कोना-कोना जैसे इस धार से सजल हो आया था.
उस रात उसने खुशी की तस्वीर बनाई थी. काले सफेद बादलों से अटा पड़ा आसमान और उसकी आखिरी ऊंचाई को छू लेने को आतुर किसी परी की तरह उड़ती-लहराती उसकी बेटी, खुशी... श्वेत-श्याम रंगों के अद्भुत संयोजन से बनी उस तस्वीर में खुशी के दाहिने हाथ में उड़ते पतंग की डोर थी...अपनी खुशी को एकटक देखती नेहा ने कूची उठाई और वह सादा पतंग इन्द्रधनुष के सात रंगों से सज गया... देर रात बल्कि भोर से कुछ ही देर पहले पेंटिग पूरी करने के बाद उसने उसकी एक तस्वीर उतारी और उसे अभिनव को मेल करते हुये उसने सोचा... खुशी बिल्कुल मेरी ही तरह है... लम्बे-घने केश, छरहरी काया और गहरे काजल के पीछे से झांकती सपनीली आंखें.. क्या उसकी आंखों में भी वही सपने पल रहे होंगे जो कभी उसकी आंखों में बलते थे... खुशी जब खुश हो कर उसके गले लगती है उसके मन का हर कूल-किनारा तरल हो आता है... वह उसे अभिनव के बारे में बताना चाहती है.. उससे उसकी बातें करना चाहती है... लेकिन एक अनाम सा भय जैसे उसकी जुबान पर ताले सा लटका रहता है हरदम... अब वह बच्ची नहीं रही... कॉलेज जाने लगी है... सबकुछ समझती है... क्या सोचेगी वह... मां और इस उम्र में... उसके किशोर मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका... नहीं, वह कुछ नहीं बतायेगी उसे अभिनव के बारे में... उसकी खुशियां छीनने का कोई हक नहीं है उसे... वह तो दुनिया में सबसे ज्यादा उसी पर भरोसा करती है, शायद भगवान से भी ज्यादा....
नेहा चाहती है कि वह खुशी के आगे नरेन से कभी न झगड़े, लेकिन नरेन कई बार मजबूर कर देता है उसे... ऐसे क्षणों में खुशी अक्सर दूर कहीं देखती रहती है शून्य में और नरेन के जाने के बाद चुपचाप बिलाआवाज़ उसके पास आ उसकी हथेलियों को थाम लेती है जैसे खुद को उसके साथ होने का अहसास दिला रही हो... और उस दिन तो हद ही हो गई थी जब उसने उसके आंसू पोछते हुये कहा था - ‘मां, मैं नौकरी करने के बाद तुम्हें अपने साथ रखूंगी... मैं शादी कर के तुम्हें दुहराना नहीं चाहती...’ नेहा ने उसके होठों पर अपनी ऊंगली रख दी थी - ‘नहीं, खुशी, ऐसा नहीं कहते.’ खुशी की मासूम शक्ल और उसकी भोली बातें याद आते ही वह हर बार अपना इरादा बदल देती है या यूं कहें कि अपने जुबान तक आ चुके अभिनव के नाम को कंठ के नीचे ही घुट जाने देती है... अभिनव का नाम अपनापे का गोला बन कर उसके भीतर चक्कर काटता है... वह चाह-सोच कर भी उसकी बातें किसी और से नहीं कर सकती, उससे भी नहीं जो उसकी सबसे ज्यादा अपनी है, जो उसे जीवन में सबसे ज़्यादा प्यारी है. यदि खुदा न खास्ता अभिनव को कुछ हो गया तो वह सबके सामने दो बूंद आंसू भी न बहा पायेगी. ऐसा सोचकर उसके भीतर का अनुराग आग के गोले की तरह तेजी से उभरता और उसके मन-प्राण को बेरहमी से झुलसा जाता है.... उसके कण-कण से एक चीख-सी निकलती है और उसके भीतर ही घुट कर दम तोड़ देती है... बेचैनी का तेजाब उसके नसों में उबलने लगता है और वह एक बेनाम पीड़ा के खारे समंदर में डूब जाती है...
अभिनव को नेहा की नई पेंटिग बहुत पसन्द आई थी. सपनों का जो इन्द्रधनुष वह उसकी आंखों में तैरते देखना चाहता था उसकी स्पष्ट छाप उसे खुशी की तस्वीर में दिख रही थी... खुशी के लहराते कदमों और बोलती-सी आंखों में जैसे नेहा ने खुद को ही निचोड़ दिया था. उसने मेल पर अपनी प्रतिक्रिया लिखी थी...‘ नेहा, तुम्हारा यह कूलर अब सचमुच ए सी हो गया है. और फिर अपने वादे एक अनुसार उस पेंटिग के मूड को दर्शाती एक खूबसूरत सी कविता..."
खुशी को उसकी तस्वीर दिखाने के बाद उस दिन नेहा ने उसे अभिनव की कविता भी सुनाई थी. अपनी तस्वीर को देख खुशी तो पहले से ही खुश थी, कविता सुनने के बाद तो जैसे वह किलक ही पड़ी..." मां, इतनी सुन्दर कविता किसने लिखी?"
"मेरे एक दो..." नेहा ने बड़ी मेहनत से दोस्त शब्द को गटकते हुये कहा था..."एक परिचित ने."
"क्या नाम है उनका?’
"अभिनव." नेहा की आवाज़ में एक अतिरिक्त सतर्कता थी और एक अनाम सा संकोच भी. उसने जबरन बातचीत की दिशा बदल दी थी... लेकिन, खुशी को अभिनव की कविता सुना के नेहा को जितना अच्छा लगा था उससे भी ज्यादा अच्छा अभिनव के प्रति उसके कौतूहल को देख कर लगा. उसके भीतर माटी के दीये में जगमगाती-सी एक निष्कंप दीपशिखा लहराई थी... उसके अणु-अणु को एक नई रोशनी से भरती हुई... लेकिन अगले ही पल उसे एक अदृश्य आशंका ने घेर लिया था, बाहर से भीतर तक पता नहीं खुशी ने क्या सोचा हो... कहीं उसने इसका कोई और अर्थ न निकाल लिया हो...
खुशी को अभिनव की कविता याद हो गई थी. मां की पेंटिग और अभिनव की कविता उसकी मन में बारी-बारी से आ-जा रहे थे. अभिनव को परिचित कहते हुये मां के चेहरे पर जो एक अकबकाहट सी उग आई थी उसकी आंखों में अब भी ताज़ा थी... उसे पापा की याद हो आई... वे दिन रात अपनी फोटोग्राफी में व्यस्त रहते हैं. घर और मां तो बहुत दूर उन्हें उसके लिये भी समय नहीं रहता... टूर... प्रदर्शनी... वर्कशॉप और न जाने क्या-क्या.. हां, वो इतना जरूर चाहते हैं कि उनकी हर प्रदर्शनी में मां उनके साथ जरूर जाये, सज-संवर कर. उसकी आंखों के आगे ऐसी कई तस्वीरें कौंध गई जिसमें पापा दीप जलाते हुये किसे प्रदर्शनी का उद्घाटन कर रहे हैं और सजी-संवरी मां अपना आंचल थामे उनके पीछे खड़ी है... उसकी जुबान पर जैसे एक तीतापन उग आया था... वह जानती है मां को इस तरह शो पीस बन कर कहीं जाना पसंद नहीं. शुरु-शुरु में तो उसने मना करने की भी कोशिश की थी.. लेकिन पापा को उसका मन पढ़ने की फुर्सत कहां थी. वे तो उसे ऐसे ही समझते थे जैसे किसी मैच में जीत कर लाइ गई ट्राफी. और ट्राफी का मन कहां.. उसे तो अपने विजेता के साथ हर जगह जाने को तैयार रहना चाहिये... उसकी जुबान पर तैरता तीतापन अब और कसैला हो कर उसके भीतर तक फैलने लगा था कि इसी बीच अभिनव की पंक्तियां अंधेरे में जगमगाते जुगनू की तरह उसके भीतर जलने-बुझने लगीं...‘उड़ो, कि आकाश तुम्हारे ही इंतजार में है...’ उन पंक्तियों की रोशनी में उसे मां की बुझी-बुझी आंखें दिखी थी... उसे याद आया इधर कई दिनों से घर का माहौल ठीक नहीं दिखता. मां की आंखों में एक अजीब सी उदासी टंगी रहती है... खामोश-सी लेकिन बिना कुछ कहे ही सबकुछ कह जानेवाली... वह उसे देख मुस्कुराने की कोशिश करती है लेकिन इस कोशिश में जैसे उसकी उदासी और उघड़ जाती है... नेहा को हर बार लगता है कि उसने खुद को उघड़ने से बचा लिया और खुशी की आंखे जैसे हर बार उसे देख लेती हैं... उस दिन वह सोने की तैयारी में थी... पापा अस्फुट सी आवाज़ में मां को कुछ कह रहे थे... वह उन्हें मेरे जगे होने का वास्ता दे चुप रहने का इशारा कर रही थी लेकिन उनका गुस्सा जैसे सातवें आसामान पर था... उनकी अस्फुट सी बुदबुदाहट अचानक से तेज हो गई थी... सोने के नाटक में उसने खुद को एक जीवित लाश की तरह बिस्तर से चिपका लिया था... पापा की आवाज़ जैसे उसके कानों में किसी गर्म सलाखे की तरह उतर रही थी... ‘कौन है वह...? बता किसे फोन करती है, तुम इन दिनों...?’ खुशी की पीठ में जड़ी उसकी आंखें देखती हैं... मां की जुबान बन्द है, लेकिन उसकी आंखें अब भी बोल रही हैं... ‘मेरा न सही, बेटी का तो ख्याल करो...’ लेकिन पापा को कुछ नहीं सुनाई पड़ रहा... वे गुस्से में हैं... कुछ देर यूं ही बोलते रहने के बाद उन्होंने तकिया-चादर उठाया और नीचे के कमरे की तरफ चल पड़े हैं...
धीरे से दरवाज़े की सिटकनी लगाने के बाद नेहा खुशी की बगल में लेट गई थी... उसे मालूम था खुशी सो नहीं रही... उसका मन उस से लिपट कर रोने को हो रहा था लेकिन हिम्मत नहीं हुई... वह दूसरी तरफ मुंह किये लेटी रही... दोनों के बीच झिझक की एक महीन सी दीवर खड़ी थी जैसे बारी-बारी से उन दोनों का चेहरा देख रही हों इस उम्मीद में कि कोई तो उसे तोड़ने की पहल करेगा... तभी खुशी के भीतर एक हलचल सी हुई और उसने नेहा की हथेलियां अपनी हथेलियों में ले ली... हमेशा की तरह. अभी उन दोनों के बीच उनकी सांसों के अलावा और कुछ नहीं था... समय भी जैसे चुपचाप उनके बीच से सरक कर हाशिये की तरफ चला गया था... कि तभी खुशी के सधे हुये शब्द नेहा के कानों से टकराये थे... "तुम्हारी पेंटिंग और अभिनव अंकल की कविताओं की प्रदर्शनी साथ-साथ लगे तो..?" खुशी की आवाज़ में एक अजीब तरह की तटस्थता थी जैसे अनगिनत रिहर्सल के बाद कोई मंजा हुआ अभिनेता रंगमंच पर संवाद बोल रहा हो... बाहर की दुनिया से जितना निर्लिप्त अपने किरदार के भीतर उतना ही डूबा हुआ... नेहा सकते में आ गई थी, जैसे किसी ने अचानक से उसकी चोरी पकड़ ली हो... उसने खुद को संभालने की एक नाकाम सी कोशिश की... " कैसी बेतुकी बातें कर रही हो... प्रदर्शनी और मेरी पेंटिंग्स की..."
खुशी ने वह भी सुना जो नेहा की जुबान पर आते-आते रह गया था... "... और वह भी अभिनव की कविताओं के साथ...?"
नेहा की आवाज़ अब भी लड़खड़ा रही थी..." तुम्हें जरूर कुछ गलतफहमी हुई है..."
"नहीं, मुझे कोई गलतफहमी नही हुई.. मैं वही कह रही हूं जो समझ रही हूं और मुझे पता है मैं कुछ भी गलत नहीं समझ रही... तुम देखना अब यह प्रदर्शनी जरूर लगेगी... और हां, तुम कहती हो न कि मेरी राइटिंग बहुत अच्छी है, तुम्हारी पेंटिंग के नीचे अंकल की कवितायें मैं अपने हाथों से लिखूंगी..." नेहा की हथेलियों पर खुशी की हथेलियों की पकड़ मजबूत हो रही थी..." और हां, ऐसा करने से हमें कोई नहीं रोक सकता, पापा भी नहीं." नेहा ने खुशी को जोर से भींच लिया था... उसे लगा खुशी सचमुच बड़ी हो गई है...
सुनहरे पंखोंवाला चांद और तेजी से फड़फड़ा रहा था... सुबह की प्रतीक्षा में टिमटिमाते तारों की रोशनी जैसे अचानक से बढ़ गई थी... ढलती रात के साथ रातरानी की महक सबकुछ अपने आगोश में भर लेना चाहती थी... नेहा ने डायरी के हल्के बादामी सफे पर एक जोड़ी आंखें खींची... गहरी, नीली और सपनों से भरी हुई... उसने गौर किया ये आंखें बिल्कुल खुशी की आंखों जैसी थी...
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शिक्षा : ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एम. बी. ए. (फाइनान्स)
प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह)
केन्द्र में कहानी (आलोचना)
भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास(शीघ्र प्रकाश्य)
चर्चित ब्लॉग समालोचन के लिए कहानी केन्द्रित लेखमाला
सम्पादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन)
पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ
(निकट पत्रिका का विशेषांक)
समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी
(संवेद पत्रिका का विशेषांक)
बिहार और झारखंड मूल के स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित
'अर्य संदेश' का विशेषांक
संप्रति : एनटीपीसी लि. में कार्यरत
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