कश्मीर के राजनैतिक इतिहास और कश्मीरियत के अहसास की खुशबू को अपने सीने मे छुपाए इस उपन्यास के चरित्र संवेदना के जिस उच्चतम बिन्दु पर टकराते और पिघलते हैं वहाँ नफरत और पूर्वाग्रहों की कोई जगह नहीं होती। प्रेम, उत्साह, आक्रोश और उत्तेजना के बीच जीवन में व्याप्त नाटकीयता को सहजता के साथ पाठकों के लिए ग्राहय बनाने की अनियोजित कलात्मकता से लबरेज यह उपन्यास रूमानियत के पीछे की जटिलता तथा राजनैतिक अनेकरैखिकता में घुले अंतर्द्वंन्द्वों के पीछे की ठोस असलियतों को परत-दर-परत उकेरने की रचनात्मक समझदारी का उत्कृष्ट उदाहरण है। समय और इतिहास की अतल गहराईयों में डूबकर कश्मीर और भारत के नाभिनालबद्ध सम्बन्धों को तार्किकता और संवेदना के संयुक्त धरातल पर पुनर्स्थापित करने का रचनात्मक तेवर निश्चय ही इस कृति को कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखे अन्य उपन्यासों से अलग करता है। यह उपन्यास इन अर्थों में भी कश्मीर केन्द्रित अन्य उपन्यासों से अलग है कि यह तथाकथित सेक्यूलर और सांप्रदायिक के खांचे में बंटी पारंपरिक राजनीति से इतर कश्मीर को समग्रता के धरातल पर समझने की कोशिश करता है।
जिया और इकबाल की प्रेम कहानी के बहाने लिखा गया यह उपन्यास कश्मीर के इतिहास और प्रेम के कारुणिक आख्यान की एक ऐसी जुगलबंदी के रूप में हमारे सामने आता है जहां मुल्क और इश्क के अंत:सूत्र परस्पर इस तरह आबद्ध हैं कि इन दोनों को चाहकर भी विलग नहीं किया जा सकता है। लेखिका ने भले उपन्यास का नाम इकबाल रखा हो, पर यह उपन्यास इकबाल से ज्यादा जिया की कहानी है। उस जिया की जो कश्मीर और इकबाल दोनों ही के आकर्षण में दीवानगी की हद तक बंधी है। कश्मीर और इकबाल के प्रति जिया का यही द्वन्द्वात्मक मोह उपन्यास में राष्ट्र और प्रेम के अंतर्द्वंद्वों की अनुगूंज बनकर उभरता है। कश्मीर और इकबाल एक दूसरे से अलग होकर भी जिया के अंतस में इस हद तक एकमेव हैं कि उसके लिए कब कश्मीर इकबाल में और इकबाल कश्मीर में बदल जाता है पता ही नहीं चलता। इन दोनों के प्रति जिया का जुड़ाव इतना आत्मीय और सघन है कि कथानक के साथ बढ़ता हुआ पाठक खुद यह भूल जाये कि जिया गोवा से कश्मीर क्यों गई थी- कश्मीर की हकीकतों से रूबरू होकर एक उपन्यास लिखने या फिर इकबाल से मिलने। यह उपन्यास की कमजोरी नहीं कथानक का सघनतम बुनाव है जो मुख्य धारा और अनुषंग के बीच के अंतर को भी एक कलात्मक सधाव के साथ पाट देता है।
इकबाल एक संवेदनशील व्यक्ति है। लेखिका की सहानुभूति भी उसे कम नहीं मिलती, लेकिन दिल और दिमाग के बीच तुक तान बिठाने को लेकर वह जिया से बहुत अलग है। वह जिया के प्रति पाजेसिव तो है लेकिन कश्मीर की आजादी का खयाल उसके जेहन से कभी नहीं जाता। इकबाल जिया के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करते-करते कश्मीर के प्रति अपने वैचारिक आग्रहों पर आ थमता है, वहीं जिया हिंदुस्तान और कश्मीर के द्वंद्व के बीच अपनी राष्ट्रवादी प्रतिबद्धताओं को दुहराती हुई इकबाल के प्रेम और आकर्षण में खो जाती है। इकबाल और जिया के बीच का यही बुनियादी अंतर इस उपन्यास को एक मानीखेज और मारक कथानक प्रदान करता है। अपने व्यवहारों और दलीलों से जिया भले राष्ट्रवादी राजनैतिकता की पक्षधर दिखाई दे लेकिन भीतर से वह सबसे पहले एक औरत है। मजहब और संस्कृति ही नहीं अपनी राजनैतिक पक्षधरता के अहाते से भी बाहर जा कर दूसरों के दर्द को पहचानने की जो सलाहियत उसके पास है वह उसके स्त्री होने के ही कारण है। इकबाल से मतभिन्नता के बावजूद उसका स्त्री मन कश्मीरियों पर किए गए अत्याचार और क्रूरताओं की कहानी सुनकर आहत होता है। उसके भीतर करुणा और कौतूहल दोनों का एक मिलाजुला भाव निरंतर प्रवाहित होता रहता है, समान वेग और त्वरा के साथ। वह प्रकृति और परिवेश को ही नहीं व्यक्ति और उसकी संवेदनाओं को भी जानना-समझना चाहती है। और वह व्यक्ति यदि स्त्री हो तो उसकी उत्सुकता में अपनत्व का गाढा रंग भी मिल जाता है। लेकिन तमाम संवेदनशीलता के बावजूद इकबाल की भावनाएं किसी व्यक्ति के सुख-दुख से भीगने के बजाय हिंदुस्तान और यहाँ की सरकार के प्रति आक्रोश से संचालित होती हैं। एक ही सत्य को स्वीकारने और उसके प्रति अपनी नाराजगी जाहिर करने के बावजूद इकबाल और जिया के नज़रिये का अंतर दरअसल पुरुष और स्त्री के नज़रिये का भी अंतर है।
माहौल और ज़ुबान की चुप्पी के बीच जिया के भीतर इकबाल के लिए पल रहे प्रेम का कलरव उयपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्रेम तो इकबाल के भीतर भी पल रहा है लेकिन वह अपेक्षाकृत कम मुखर है। प्रेम की अभिव्यक्ति को लेकर स्त्री-पुरुष की सामन्यत: स्वाभाविक प्रकृति का प्रतिलोम रचते इन पात्रों का व्यवहार क्या इसलिए है कि इसे लिखने वाली एक स्त्री है? या फिर कहीं न कहीं इसके पीछे पारंपरिक नैतिक मूल्यों के आधुनिक प्रतिरोध का भी बीज छुपा है, जहां स्त्रियाँ सिर्फ मूक संवेदनाओं को ही नहीं जीतीं बल्कि अपने भीतर के अनकहे आलोडनों को भी एक अकुंठ अभिव्यक्ति देती हैं।
जिया और इकबाल के प्रम के बीच फैले कश्मीर की राजनीति से दो-चार होता यह उपन्यास कई गंभीर राजनैतिक प्रश्न भी उठाता है। कश्मीर भारत का हिस्सा है या नहीं के सच की ऐतिहासिक पडतसल के समानान्तर यह उपन्यास यह प्रश्न भी खड़ा करता है कि कश्मीर का भारत के साथ होना कश्मीरियों की जरूरत है या एक राजनैतिक मजबूरी? क्या एक आज़ाद मुल्क की तरह कश्मीर अपना स्वायत्त वजूद कायम रख सकता है? सिर्फ प्राकृतिक खूबसूरती और पर्यटन के सहारे किसी राष्ट्र के वजूद और विकास की कल्पना की जा सकती है? दिलचस्प यह है कि ये प्रश्न यहाँ जिया नहीं बल्कि मंज़र और मुज़तबा जैसे उपन्यास के दूसरे कश्मीरी पात्र उठाते है। जाहिर है आज़ाद कश्मीर की आवाज़ पूरे कश्मीर की आवाज़ नहीं है। इस तरह यह उपन्यास कश्मीर और कश्मीरियत के नाम पर अपनी-अपनी सुविधा से अपनाए गए चश्मे को छोडकर कश्मीर को एक बड़े धरातल पर देखने की मांग भी करता है। साथ ही कट्टरपंथी इस्लाम और सूफी संप्रदाय के बीच की दूरी और मजहब में यकीन न रखनेवालों की मजबूरी को भी यह उपन्यास जिस खूबसूरती से सामने लता है वह उल्लेखनीय है।
कुल मिलकर जयश्री इस उपन्यास में तर्क और यकीन का एक ऐसा द्वन्द्वात्मक प्रतिसंसार रचती हुई दिखाई पड़ती हैं, जो प्यार और राजनैतिक पक्षधरता के बीच उम्मीद और भरोसे के एक टुकडा आसमान की तरह लटका हुआ है। निश्चित तौर पर यह जयश्री रॉय के लेखन का एक नया प्रस्थान है।
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लेखक परिचय
राकेश बिहारी
जन्म : 11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
शिक्षा : ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एम. बी. ए. (फाइनान्स)
प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह)
केन्द्र में कहानी (आलोचना)
भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास(शीघ्र प्रकाश्य)
चर्चित ब्लॉग समालोचन के लिए कहानी केन्द्रित लेखमाला
सम्पादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन)
पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ
(निकट पत्रिका का विशेषांक)
समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी
(संवेद पत्रिका का विशेषांक)
बिहार और झारखंड मूल के स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित
'अर्य संदेश' का विशेषांक
संप्रति : एनटीपीसी लि. में कार्यरत
संपर्क : एन एच 3 / सी 76
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