आत्मा रंजन के कविता संग्रह “पगडंडियाँ गवाह है” से गुजरना उन छूट चुकी धूल-धूसरित पगडंडियों पर दुबारा चलना है जो हमें तेज़ी से बिसरा दिए जा रहे लोकजीवन से जोड़ती हैं। इन कविताओं में हमारे जीवन को सँजोने वाली स्त्री है जो इसके सारे कंकड़ों को चुनती, इसे जीने योग्य बनाती है। उसके अंदर स्नेह और ममता की जो आंच है, वह जीवन के सारे ताप को हरती हुई एक बर्फ़ के गोले जैसी है। इसे देह की आंच तक सीमित कर देना पुरुषों की अक्षमता मात्र है । इन कविताओं में एक छूटा हुआ लोक वृक्ष है जिसकी पुरातन शाखाओं में कई अनकही कथाएँ स्पंदित है । यहाँ लोक गीतों की सोंधी ख़ुशबू है जो लुप्त होती परम्पराओं और रिवाजों के साथ ही हमारे जीवन से गायब होती जा रही है । इन कविताओं में बाज़ार के बढ़ते प्रभाव की वजह से पीछे छूट रहे जीवन मूल्यों और हाशिये पर धड़कते जीवन को बचाने और सहेजने की तड़प है, चाहे वह नज़र नहीं आने वाले पत्थर चिनाई और रंग पुताई करते कर्मठ हाथ हों, या हो एक कट रहा बूढ़ा पेड़ या फिर हो दो मासूम हाथों द्वारा सहेज लिया गया एक पुराना उपेक्षित डिब्बा । यहाँ अपनी जड़ों से कटे किसी गमले में सिमट आए पौधे की तरह बहुमंज़िली इमारतों में कैद सपने हैं तो बाज़ार समय में मानवीय भावनाओं का दोहन करते विज्ञापनों के हाथों इन्सानों के कठपुतलियों में तब्दील होते जाने के विरुद्ध आशंका जताता स्वर है ।
यह कविताएँ अपने शिल्प के साथ बिना कोई समझौता किए हुए उन सभी तत्वों को बचाने का आह्वान करती हैं जो हमारे तेज़ी से भागते जीवन में अक्सर हमें नज़र ही नहीं आती । एक संवेदनशील कवि वहाँ रुकता है और उन्हे अपने शब्दों में सहजेता हुआ हमारे जीवन का हिस्सा बना देता है । उन्हें देख सकने की एक नवीन दृष्टि अपने पाठकों को देता है । एक रचनाकार के सृजन कर्म की सफलता इसी में निहित है कि वह अपनी रचनाओं में नयी सदी के सभी परिवर्तनों को इंगित करता हुआ जो कुछ भी विध्वंसक है उससे नयी पीढ़ी को आगाह कराए। साथ ही वह सब कुछ जो पुराना और महत्वहीन घोषित कर परे कर दिया गया है , उन्हें मुख्यधारा से जोड़ते हुए हमारे जीवन के सरोकारों में शामिल कर दे । इन कविताओं का मूल स्वर भी उन्हीं सरोकारों से हमे जोड़ता है, जिन्हें हम तेज़ी से भूलते जा रहे लेकिन इस प्रयत्न में यह कविताएँ कहीं भी नारेबाज़ी या उपदेशों में तब्दील नहीं होतीं बल्कि अपने भाषायी सौंदर्य और प्रतीकों की मौलिकता से बांध लेती हैं । कवि का यह कहना वाकई उन सभी तत्वों के लिए एक ख़तरनाक घोषणा है जो हमें मशीनों में तब्दील करने की साज़िशें करते हुए उन सभी चीजों से दूर करते जा रहे हैं, जिनकी स्नेहिल ऊष्मा से सिंचित होकर एक इंसान इंसान बना रह पाता है :
इस सदी का एक ख़तरनाक हादसा है
बहुत ज़रुरी है कि कुछ ऐसा करें
कि बना रहे यह
अंगुलियों का स्नेहिल स्पर्श
और जड़ होती सदी पर
यह नन्हीं स्निग्ध पकड़
कि इतनी ही नर्म ऊष्म
बची रहे यह पृथ्वी । ”
प्रस्तुत है हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि आत्मा रंजन के संग्रह से कुछ कविताएँ जिन्हें पढ़ते हुए हमें वह सब याद आता रहता है जिसकी नर्म ऊष्मा से ऊर्जा ले यह पृथ्वी बनी हुई है पृथ्वी ।
1. कंकड़ छांटती
भागते हांफते समय के बीचोंबीच
समय का एक विलक्षण खंड है यह
अति व्यस्त दिन की
सारी भागमभाग को धत्ता बताती
दाल छांटने बैठी है वह
काम से लौटने में विलम्ब के बावजूद
तमाम व्यस्तताओं को
खूंटी पर टांग दिया है उसने
पूरे इत्मीनान से टांगे पसार
बैठ गई है गृहस्थ मुद्रा में
हाथ मुंह धोने, कपड़े बदलने जैसी
हड़बड़ी नहीं है इस समय
एक आदिम ठहराव है
तन्मयता है पूरी तल्लीनता
पूरे मन से डूबी हुई एक स्त्री
एक-एक दाने को सौंप रही
उंगलियों का स्निग्ध स्पर्श
अन्न को निष्कंकर होने की
गरिमा भरी अनुभूति
स्वाद के तमाम रहस्य
और भी बहुत कुछ.....
एक स्त्री का हाथ है यह
दानों के बीचोंबीच पसरा स्त्री का मन
घुसपैठिए तिनके, सड़े पिचके दाने तक
धरे जाते हुए
तो फिर कंकड़ की क्या मजाल!
उसकी अनुपस्थिति में
एक पुरुष को
अनावश्यक ही लगता रहा है यह कार्य
या फिर तीव्रतर होती जीवन गति का बहाना
उसकी अनुपस्थिति दर्ज होती है फिर
दानों के बीचोंबीच
स्वाद की अपूर्णता में खटकती
उसकी अनुपस्थिति
भूख की राहत के बीच
दांतों तले चुभती
कंकड़ की रड़क के साथ
चुभती रड़कती है उसकी अनुपस्थिति
खाद्य और खाने की
तहजीब और तमीज बताती हुई
एक स्त्री का हाथ है यह
जीवन के समूचे स्वाद में से
कंकड़ बीनता हुआ!
2. हांडी
काठ की हांडी
एक बार ही चढ़ती है
जानती हो तुम
मंजूर नहीं था तुम्हे शायद
यूं एक बार चढ़ना
और जल जाना निरर्थक
इसलिए चुन ली तुमने
एक धातु की उम्र
धातु को मिला फिर
एक रूप एक आकार
हांडी, पतीली, कुकर, कड़ाही जैसा
मैं जानना चाहता हूं
हांडी होने के अर्थ
तान देती है जो खुद को लपटों पर
और जलने को
बदल देती है पकने में
सच सच बताना
क्या रिश्ता है तुम्हारा इस हांडी से
मांजती हो इसे रोज
चमकाती हो गुनगुनाते हुए
और छोड़ देती हो
उसका एक हिस्सा
जलने की जागीर सा
खामोशी से
कोई औपचारिक सा खून का रिश्ता मात्र
तो नहीं जान पड़ता
गुनगुनाने लगती है यह भी
तुम्हारे संग एक लय में
खुदबुदाने लगती है
तुम्हारी कड़छी और छुवन मात्र से
बिखेरने लगती है महक
उगलने लगती है
स्वाद के रहस्य
खीजती नहीं हो कभी भी इस पर
सांझा करती है यह तुम्हारे संग
न चढ़ पाने का दुख
और तुम इसके संग
भरे मन और खामोश निगाहों से
सच मैं जानना चाहता हूं
कैसा है यह रिश्ता।
3. एक लोक वृक्ष के बारे में
मदनू से मजनू तक के उच्चारणों में
बोला जाता हुआ तुम्हारा नाम
जिज्ञासा और रहस्य से लिपटा है आज
तुम्हारे व्यक्तित्व की ही मानिंद
मौन समाधि तोड़ कुछ तो बताओ अपने बारे में
क्यों पूर्व की ओर ही गाए जाते हैं तुम्हारे पांगे
जी जान लुटाने के बाद भी कलेजा मांगती
निष्ठुर नायिका का समर्पित प्रेमी
कसक भरी मनुहार गुहार
क्यों लगाता है तुम्हारे ही पास!
सब कुछ जानने वाले भी कुछ नहीं जानते तुम्हारे बारे में
चिडि़या की भाषा में चहकते
बूंदों की भाषा में थिरकते हो तुम
बसन्त और पतझड़ की भाषा में
खिलते और सुबकते
चीख तक के लिए इस बहरे समय में
जानेगा भी कौन तुम्हारे निःशब्द को
पीपल की तरह बस्ती के बीचों-बीच
शुचिता के ऊंचे चबूतरे पर विराजमान
नहीं हो तुम पूजा के पात्र
देवदार की मानिंद नहीं है तुम्हारे पास
देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव
महान ग्रंथों में दर्ज़ मुग्धकारी इतिहास
धर्म की अलौकिकता
इतिहास की स्वर्णिमता से ग्रस्त
तुम नहीं हो कोई महान धर्माचारी या महानायक
औषध गुणों या फलदायी उपयोगितावाद के
लिजलिजे लगाव से मुक्त
एक सम्पूर्ण वृक्ष की सार्वजनिक दाय लिए
तमाम सायास क्रियाओं से अछूते
किसी धार, घाटी, नाले में
या फिर अपनी मनपसंद जगह-
बांवड़ी के खबड़ीले टोडे पर
समूची मानवीय हलचल में डोलते लहराते रहे हो
मदन जैसे सम्मोहक मजनू से समर्पित
सदियों से लोकगीतों में गाए जाते
एक ठेठ लोक नायक हो तुम
बांवड़ी के जल को अपनी जड़ों की मार्फत
सौंपते रहे हो हृदय की ठंडक और मिठास
भर दोपहर बोझा लादे खड़ी चढ़ाई का दंभ रौंदते
पसीने नहाए बदन
सूखते कंठ के लिए
ठण्डे पानी की घूंट के साथ
तुम्हारे पास है- ठण्डी हवा
और घनी छाया की राहत
भरे जाते हुए मटकों, गागरों और टोकणियों की
हर एक ध्वनि के ध्वन्यार्थ से परिचित हो तुम
जानते हो खाली बर्तन का इतिहास
और भरे हुए बर्तन का भविष्य
पनिहारनों और घसियारनों के बतियाये जाते हुए
सुख दुख के मर्म को समझते हो तुम
पूरी सहजता के साथ
जंगली फूल की तरह चुपचाप कहीं
उपजते उमगते उमड़ते प्रेम के
समूचे सुख और समूची यातना के
सच्चे साक्षी रहे हो तुम
बनते रहे हो उनके लोकगीतों की टीसती टेर
अलबत्ता सीडी में सजाए जा रहे
टैक्सियों में पर्यटकों को परोसे जा रहे
डिस्को ताल लोकगीतों में
कहीं नहीं है तुम्हारा जि़क्र
उपेक्षित बांवडि़यों के
वीरान किनारों पर
बिल्कुल वैसे ही खड़े हो
तुम आज भी
इस बात की गवाही देते
कि जो पूजा नहीं जाता
नहीं होता इतिहास के गौरवमयी पन्नों में दर्ज़
वह भी अच्छा हो सकता है।
4. बोलो जुल्फिया रे
एक दार्शनिक ने कहा-
किसी को लम्बी उम्र की दुआ देनी हो तो कहना चाहिए
तेरी उम्र लोकगीत जितनी हो!
लेकिन अपवाद ही हुए तुम
तुम्हारी कहानी से अपरिचित था शायद दार्शनिक
मेरे भीतर क्यों गूंज रही है
रह रह कर तुम्हारी कसकती लम्बी तान
लहलहाते मक्कई खेत के छोर पर खड़ा हूं मैं
सामने पसरी है खेतों की लम्बी ढलान
कहां है वह गांव भर से जुटे बुआरों का दल-
‘जितने सरग में तारे उतने मेरे मामा के बुआरे’
जैसी कहावतों को मूर्त करते हुए
कहां है वह बाजों-गाजों के साथ चलती गुड़ाई का शोर
यहीं तो गूंजते थे तुम्हारे बोल-
‘बोलो जुल्फिया रे....ऽ....ऽ....’
युवक युवतियों के टोलों के बीच
यहीं जमते थे तुम्हारी लय में ढले सवाल जवाब
यहीं तो खुलते थे उनके भर आए दिलड़ू के द्वार
तुझ में ही उघड़ती थीं सुच्चे प्यार की परतें
बूढ़ाती स्मृतियों में कहीं ठहर गया है दृश्य
किसी का काम न छूटने पाए
बारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गांव
हल्ले-गुल्ले से ही कांप उठते खरपतवार
और दो तीन पालियों में ही निपट जाता
बड़े से बड़ा खेत
कई कामचोर तो ऐसे ही तर जाते
जुल्फियें की दाद देते-देते
खिलणियों की नोक से निकलता
धरती की परतों में छिपा कांपता संगीत
मिट्टी की कठोरता में उर्वरता और
जड़ता में जीवन फूंकते
कठोर जिस्म के भीतर से उमड़ते
झरने का नाम है जुल्फिया
चू रहे पसीने का खरापन लिए
कहीं रूह से टपकता प्रेमराग
ऐसे अनन्य लोक गीत तुम
कैसे बन गए एक लोकगीत की त्रासदी
बोलो जुल्फिया रे
फिल्मी गानों पर मर मिटते
भविष्य तलाशने में जूझ रहे युवक युवतियां
देह लपकने को आतुर संगीत संयोजक
कहीं नहीं सुनाई देती
जुल्फिए की हूकती गूंजती टेर
खेतों में अपने अपने जूझ रहे सब खामोश
पड़ोसी को नीचा दिखाते
खींच तान में लीन
जीवन की आपाधापी में जाने कहां खो गया
संगीत के उत्सव का संगीत
कैसे और किसने किया
श्रम के गौरव को अपदस्थ
क्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोश
अपराजेय सामूहिक श्रम की
ओ सरल सुरीली तान
कुछ तो बोलो जुल्फिया रे!
(हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में प्रचलित कृषि कार्यों को मिल-जुल कर करने की ‘बुआरा प्रथा’ में सामूहिक गुड़ाई लोक वाद्यों की सुरताल के साथ सम्पन्न होती थी। जुल्फिया एक लोक गायन शैली है इसे सामुहिक गुड़ाई के अवसर पर गाया जाता था। बुआरा प्रथा के साथ ही यह लोक गायन भी अब लुप्तप्राय है।)
5. औरत की आंच
भुलेखे में हैं पुरूष
नंगे जिस्मों में कहीं ढूंढ रहे जो
औरत की आंच
भुलेखे में वे भी
बरबाद कर रहे जो इसे
ठंडे मौसम में सड़कों पर
भेजकर उसे फटेहाल
जबकि भव्य भवनों
आलीशान कालोनियों तक में
पसरी हुई है चारों तरफ
इन्सान को निचोड़ती गलाती ठंड
आपने छूकर देखा है कभी
शाम को उतार कर अलगनी पर रखी
उसकी शाॅल को
दुनिया का एक श्रेष्ठ और कोमल कवच
होने का गौरव लिए
सहेजे रहती है जो औरत की आंच
छूकर देखा है कभी
उसके पर्स में रख शीशा, रूमाल या बिंदिया
संजोए हुए हैं जो उसके पोरों की नाजुक छुवन
छूकर देखा है
सड़क के किनारे लेटाए
उसके बच्चे के गाल को
पसीना पोंछती बार-बार पुचकारती
जी खोलकर सौंपती है जिसे
होठों का स्पर्श
आंच का व्यापार भी है
हर तरफ ज़ोरों पर
सतरंगे तिलिस्मी प्रकाश की चकाचैंध में
उधर टी.वी. पर भी रचा जा रहा
आंच का प्रपंच
ज़रूरी है आग
और उससे भी ज़रूरी है आंच
नासमझ हैं
समझ नहीं रहे वे
आग और आंच का फ़र्क
आग और आंच का उपयोग
पूजने से जड़ हो जाएगी
क़ैद होने पर तोड़ देगी दम
मनोरंजन मात्र नहीं हो सकती
आग या आंच
खतरनाक है उनकी नासमझी
राखी बंधवाते महसूस कर सकते हो
इस आंच को
वहीं आंच जिसे महसूस कर रहा
ठण्डे पानी से नहाता वह फूल
जिसे सींच रही एक बच्ची
हाथ-बुने स्वेटर के
रेशे रेशे में विन्यस्त है
तमाम बुरे दिनों
और ठंडे मौसमों के लिए
गुनगुने स्पर्श से संजोई आंच
औरत की आंच
पत्थर, मिट्टी, सिमैंट को सेंकती है
बनाती है उन्हें एक घर
उसकी आंच से प्रेरित होकर ही
चल रहा है यह अनात्म संसार
एक अण्डा है यह पृथ्वी
मां मुर्गी की तरह से रही जिसे
औरत की आंच
एक बर्फ का गोला है जमा हुआ
जिसकी जड़ता और कठोरता को
निरंतर पिघला रही वह
जीवित और जीवनदायी
जल में बदलती हुई।
1 comments:
हर कविता अपने आप में परिपूर्ण/शानदार और पाठक के साथ एक क्षण में जुडती हुई प्रतीत होती है !!
बहुत कुछ सीखने को मिला...... !